साहित्य और समाज
Sahitya aur Samaj

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनी सामाजिक भावाभिव्यक्तियों, व्यवस्थित व कलात्मक भाषा में जब व्यक्त करता है तब साहित्य का निर्माण होता है। साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है। प्रत्येक या में तत्कालीन विचारों के अनुरूप ही साहित्य की रचना हुई है। किसी भी साहित्य में उस युग की वाणी सुनी जा सकती है। साहित्य के अच्छे विचारों का आधार समाज ही है। कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं।

प्रत्येक साहित्यकार अपने समाज का प्रतिनिधित्व करता है। वह अपनी सामग्री का चयन समाज के विभिन्न क्षेत्रों से करता है। किसी भी जाति का साहित्य उसकी संस्कृति व विचारधारा के अनुरूप होता है। जो मानव जीवन में नहीं, ऐसे तथ्यों की कल्पना करना किसी भी साहित्यकार के वश में नहीं है। कविवर टैगोर ने लिखा है-साहित्य शब्द से एक साथ मिलने का भाव देखा जाता है। वह केवल भाव-भाव का, भाषाभाषा का, ग्रंथ-ग्रंथ का ही मिलन नहीं अपितु मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का भी मिलन । है जो साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र संभव नहीं। यही कारण है कि । समाज के उत्थान-पतन में साहित्य का बड़ा योगदान है।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य और समाज के विषय में। लिखा है-जाति विशेष के उत्कर्ष-विकर्ष का, उसके उच्च-नीच। भावों का, उसके धार्मिक भावों तथा सामाजिक संगठनों का, उसके ऐतिहासिक व राजनैतिक घटनाचक्र का, सामाजिक शक्तियों, सभ्यता असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य होता है। निश्चित रूप से किसी भी काल के घटनाचक्र का प्रभाव साहित्यकार पर होता है।

साहित्य का उद्देश्य किसी समाज की मीमांसा करना नहीं आप आनंद प्रदान करना है। आसपास घटने वाली घटनाओं से साहित्यकार निरंतर प्रभावित होता है। राष्ट्र, काल एवं परिस्थितियों की उपेक्षा करने वाला साहित्य कभी भी स्थायी नहीं हो सकता। इसी कारण स्कॉट जेम्स ने लिखा है- "Literature is the comprehensive essence of the intellectual life of a nation."

साहित्य व समाज दोनों एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। कोई भी साहित्यकार अपनी समकालीन घटनाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल में तत्कालीन वीर व श्रृंगार रस की रचनाएँ मिलती हैं। भक्तिकाल तक आते-आते समाज की चित्तवृत्ति बदल गई। तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों से मुख मोड़कर परम सत्ता में लिप्त होने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ने लगी। संत व सूफ़ी साहित्य इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। मुगल बादशाहों तथा सामंतों की लौकिक पिपासा शृंगारिक भावना से पूर्ण रीतिकालीन काव्य में झलकती है। इस प्रकार समय के साथ तत्कालीन परिस्थितियों की छाया साहित्य में देखी जा सकती है। कवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं

हो रहा है जो जहाँ वह हो,
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा? 
किंतु होना चाहिए कब क्या कहाँ,
व्यक्त करती है कला ही वह यहाँ। 

साहित्य जहाँ एक ओर समाज को प्रतिबिंबित करता है, वहीं दूसरी और इसमें जीवनदायिनी तथा क्रांतिकारी शक्ति निहित है। किसी भी साहित्यकार की लेखनी वह शक्ति है जो बड़ी-बड़ी राजनैतिक सत्ताओं को परिवर्तित कर सकती है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकारों की लेखनी ने सोए भारतीयों के हृदय में जोश का संचार किया। विभिन्न कुप्रथाओं को समाप्त करने तथा सामाजिक आंदोलन लाने की दिशा में साहित्यकारों की विशिष्ट भमिका होती है। साहित्य की इसी शक्ति का वर्णन करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद लिखते हैं-

साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है वह तोप, तलवार और के गोलों में नहीं पाई जाती। इसी कारण कवि का हृदय बोल उठा-

अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है, 
मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है। 

साहित्य ज्ञानराशि का वह भंडार है जो किसी राष्ट्र की उन्नति के आधार बनता है। किसी भी राष्ट्र के इतिहास व प्रगति को जानने के लिए वहाँ के साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। साहित्यकार अपने विशिष अनुभवों को लेखनीबद्ध कर चिरजीवी बना देता है। इस प्रकार साहित्य युगों-युगों तक सभ्यता और संस्कृति, आचार और विचार का निर्देशन करता रहता है।

उत्कृष्ट साहित्य समाज सुधार का कार्य भी करता है। समाज को प्रेरणा देने की शक्ति साहित्य में है। साहित्यकार अपनी कल्पनाशक्ति के माध्यम से सामाजिक विकृतियों के दुष्परिणाम समाज के सम्मुख रखता है। जमींदारी प्रथा, छुआछूत, बालविवाह जैसी अनेक कुप्रथाओं के निवारण में तत्कालीन साहित्य की भी विशिष्ट भूमिका रही है। साहित्यकार अनेक प्रकार की भावी योजनाओं के निर्माण में भी सहायक सिद्ध होता है।

प्रेरणादायी रचनाएँ समाज को सही दिशा प्रदान करती हैं। बिहारी के एक दोहे ने अकर्मण्यता तथा विलासिता में लीन महाराजा जयसिंह को कर्तव्यपरायण बना दिया था। मार्क्स, रूसो, लेनिन, गांधी जैसे मनीषियों के विचारों पर आधारित साहित्य ने समाज को नया मोड़ दिया। साहित्य में वह शक्ति है जो समाज को प्रभावित करती है। समाज के बिना साहित्य की कल्पना भी दुष्कर है। निश्चित रूप से साहित्य व्यष्टि के माध्यम से समष्टि की आलोचना करता है। साहित्य का जन्म समाज के बिना नहीं हो सकता। साहित्य से ही समाज की शोभा होती है। भर्तहरि ने कहा है-

साहित्य संगीत कला विहीनः 
साक्षात् पशु पुच्छविषाणहीनः