दहेज प्रथा
Dahej Pratha



भारतीय संस्कृति की परंपरा अनेक युगों से विभिन्न सामाजिक रूढ़ियों से पोषित होती रही है। वैदिक काल से चली आ रही कुछ परंपराओं ने वर्तमान परिस्थितियों के कुप्रभाव से कुलित रूप धारण कर लिया है। दहेज प्रथा भी एक ऐसी परंपरा है जिसने काल व परिस्थितियों के प्रभाव से वीभत्स रूप धारण कर लिया है।


वैदिक युग में भारतीय समाज में दहेज प्रथा का प्रचलन था। वाल्मीकि रामायण में राम-सीता विवाह के अवसर पर जनक द्वारा असंख्य बहुमूल्य उपहार सीता को दिए जाने का वर्णन है। रामचरितमानस में भी वर्णन मिलता है कि शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर हिमवान ने अपनी पुत्री को अगण्य संपत्ति, दास-दासियाँ उपहार में दीं। हमारी समृद्ध साहित्यिक रचनाओं में ऐसे उदाहरण यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन काल में मातापिता स्वेच्छा से अपनी पत्री को अपनी संपत्ति के भाग के रूप में दहेज देते थे। इसका उद्देश्य कन्या के सखी समृद्ध जीवन की कामना तथा उनका प्रेम था।


मध्यकाल तक आते-आते इस प्रथा में अनेक बुराइयों का समाये गया। इस प्रथा के कारण अनेक नारियों को विभिन्न प्रकार की या सहनी पडीं। मध्ययुगीन समाज में बेमेल विवाह होने लगे तथा दहेज ने उग्र रूप धारण कर लिया। प्राचीन काल का उपहार स्वरूप दिया है वाला दहेज वर्तमान काल तक आते-आते पुरुष का अधिकार बन गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का समय आर्थिक व सामाजिक क्रांति समय था। समय के साथ परिवर्तन आए। समाज में अर्थप्रधान प्रवृत्तियों का विकास हुआ तथा इस दौड़ में धनलोलुप मध्यवर्ग में दहेज की पिपासा बढ़ती गई। कन्या के रूप, गुण, शील और आचार का तिरस्कार हुआ तथा समाज पतन की गर्त में गिरता गया। गृहस्थी की आधारशिला ही दहेज पर रखी गई तथा खुल्लम-खुल्ला धन व अन्य भौतिक सुख-साधनों की मांग। कन्यापक्ष से की जाने लगी।


दहेज शब्द का अर्थ उपहार से बदलता गया तथा आज यह वीभत्स शोषण का पर्याय बन गया है। आज वरपक्ष के लोग कन्यापक्ष से धनसंपत्ति पाना अपना अधिकार समझने लगे हैं। इस कुप्रथा ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि कन्या-जन्म को ही अभिशाप समझा जाने लगा। है। मनुस्मृति में कहा गया था कि जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। परंतु आज यह धारणा आर्थिक श्रृंखलाएं पहनकर भारतीय नारी की अवनति का कारण सिद्ध हो रही है।


वर्तमान में ऐसी असंख्य घटनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, जहाँ स्वार्थी । धनलोलुप भावनाहीन प्राणी अनेक प्रकार के उत्पीड़न देकर कन्याओं को धन लाने पर विवश करते हैं। नववधुओं को शारीरिक तथा मानसिक यातनाएँ दी जाती हैं। दहेज जुटाने के लिए पिता अपना घर, जमीनजायदाद तक बेच देते हैं। कन्याएँ आत्महत्या कर लेती हैं या परित्यक्ता, का जीवन व्यतीत करती हैं।


सामाजिक प्रतिष्ठा के मोह ने भी इस प्रथा को कत्सित बनाने में विशष। भूमिका निभाई है। लोग धन-वैभव प्रदर्शन हेतु बढ-चढकर दहेज देते है, जिससे यह स्पर्धा बढ़ती ही जाती है तथा साधारण व्यक्ति भी इसकी चपेट में आ जाता है। इसका कालग्राय बन जाता है। विवाहोपर्यात भी इस प्रथा की सीमाएँ समाप्त नहीं होती। इच्छानुसार दहेज न मिलने पर पारिवारिक कला उत्पन्न होते है जिसके परिणाम विध्वंसकारी होते है।


दहेज़ प्रथा का मूल नारी की आर्थिक परतंत्रता भी है। स्वावलंबिनी पर यह अपने अधिकारी व सम्मान की मांग कर सकती है। सन 1961 में सरकार ने विरोधी कानून भी पारित किया। आज कानूनी तौर पर इस दिशा में कठोर कदम भी उठाए जा रहे हैं। सामाजिक कुप्रथाओं का विनाश सरकारी कानूनों से नहीं अपितु जन आंदोलनों व सामाजिक क्रांति से ही संभव है।


दहेज़ प्रथा ने दानय बन असंख्य परिवारों को समाप्त कर डाला है। वर्तमान युवा पीढ़ी को भी इस कुप्रथा का तिरस्कार करना चाहिए तथा आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए स्पष्ट तौर पर दहेज मांगने का विरोध करना चाहिए। केवल मात्र दहेज की समस्या का निदान कर लिया जाए तो नारी। की अधिकांश समस्याएँ स्वयं हल हो जाती हैं।


नारी शिक्षा का प्रचार व प्रसार भी इस दिशा में आवश्यक कदम है। इससे समाज में नवमूल्यों का निर्माण होगा तथा आर्थिक दृष्टि से संपन्न नारी, समाज में सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर पाएगी। आत्मनिर्भर व स्वावलंबी होने पर कन्याएँ स्वयं अपने योग्य वर का चयन कर सकती। हैं तथा धनलीलप परिवारों की उपेक्षा कर उन्हें समाज में निंदा का पात्र बना सकती हैं। दहेज प्रथा के उन्मूलन में युवा वर्ग क्रांतिकारी कदम उठा सकता है। युवा पीढ़ी जब संकल्प लेगी कि वे दहेज माँगकर स्वयं को अपमानित नहीं करेगी तो स्वतः ही यह प्रथा समाप्त हो जाएगी।


नवयुवतियों को चाहिए कि वे दहेज प्रथा की वेदी पर स्वयं की बलि न दें। अपने मानवोचित सम्मान की रक्षा करते हुए अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व स्थापित करें। समाज में उसका स्थान पुरुष के बराबर है। अपनी परंपरागत दुर्बलताओं का समूल नाश कर कुप्रथा की श्रृंखला को तोड़ डालना चाहिए। जागरण दहेज जैसी कुप्रथा का निश्चय ही नाश कर सकता है। शायद इसी की कल्पना कर श्री बेनीपुरी में लिखा है-


नई नारी, हाँ नई नारी, 

देखो, वह अंतरिक्ष पर अवतीर्ण हुई है नई नारी, 

घूघट को जिसने उलट दिया है, 

परदे को जिसने फाड़ फेंका है, 

प्राचीरों को जिसने ध्वस्त पस्त कर डाला है 

बंधन को जो चूर-चूर कर चुकी है, 

देखो, नई नारी, वह खड़ी है, 

समाज से न्याय वसूल करती, 

पुरुषों से अपनी जगह माँगती 

-नई नारी।