स्वतंत्रता आंदोलन और समाचार पत्रों का योगदान
Swatantrata Andolan aur Samachar Patro ka Yogdan


सन 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारतीयों के विद्रोह की यह ज्याला थी जो कई दशकों से धीरे-धीरे सुलग रही थी। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही विभिन्न भारतीय समाचार पत्रों में देश की राजनैतिक स्थिति की निंदा की जाने लगी थी। गंगाधर भट्टाचार्जी ने समाचार पत्र के माध्यम से जन जागरण की जो मशाल सन 1816 में प्रचलित की थी, वह आज भी समस्त जन साधारण को प्रकाशित कर रही है। कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन में देश की चेतना को जागृत करने, जड़ भावनाओं में क्रांति का बीज अंकुरित करने में समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा पत्रकारों का विशेष योगदान रहा।


सन 1826 से 1857 तक प्रकाशित बनारस अखबार, सर्वहितकारक, समाचार सुधावर्षण, बुद्धिप्रकाश, जगदीप भास्कर, सुधाकर, प्यामे आजादी आदि समाचार पत्रों ने जनता में स्वतंत्रता का प्रदीप्त स्वर फॅका। राजा राममोहन राय जैसे समाजसुधारक भी इस क्षेत्र में आए। अनेक पत्रकारों ने अपने क्रांतिकारी विचारों से जन सामान्य को पश्चिमी संस्कृति, अंग्रेजी सरकार की दमनकारी नीतियों के विषय में जान कराया तथा व्यापक तीर पर राजनैतिक विचारों का प्रचार-प्रसार किया।

माना जाता है कि नेपोलियन भी चार विरोधी अखबारों से जितना भयभीत रहता था, उतना चार बटालियनों से भी नहीं रहता था। शायद इसीलिए अकबर इलाहाबादी ने कहा है कि -


खींचो न कमान को, न तलवार निकालो,

जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो। 


ब्रिटिश सरकार की दमनपूर्ण नीतियों, सरकारी संरक्षण एवं प्रोत्साहन का अभाव, आर्थिक संकट व सीमित साधन आदि समस्याओं से जूझते हुए कलम के सिपाहियों ने जनमत तैयार करने, क्रांति का दीप प्रज्वलित करने व स्वतंत्रता का शंखनाद करने में महान दायित्व निभाया। 'उदन्त मार्तण्ड' नामक समाचार पत्र ने जाशील लेखो द्वारा क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की।


'प्यामे आजादी' के सभी हिंदी, उर्दू आदि संस्करणों ने अपने अल्पकाल में ही प्रखर व तेजस्वी वाणी से जो वातावरण बनाया उससे ब्रिटिश सरकार घबरा उठी। जिस व्यक्ति के पास इसकी कोई प्रति मिल जाती, उसे कठोर यातनाएँ दी जाती। तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा जैसे गीतों से प्रभावित होकर अनेक युवक देश की आज़ादी के मैदान में कूद पड़े।


"प्यामे आजादी' ने अपने संपादकीयों के माध्यम से क्रांतिकारियों को फाँसी लगाए जाने की खुलकर निंदा की। लोगों में स्वतंत्रता संग्राम के लिए आह्वान करते हुए लिखा-भाइयों, बेशुमार हिंदुस्तानी बहादुरी के साथ दिल्ली आकर जमा हो रहे हैं ऐसे मौके पर आपका आना लाज़िमी ह। अगर आप वहाँ खाना खा रहे हों तो हाथ यहाँ आकर धोइए... ऐसे आह्वानों तथा अजीम उल्ला खाँ की उग्र विचारधारा से जनमानस काफ़ी प्रभावित हुआ था।


भारत मित्र, सदादर्श, अल्मोड़ा अखबार, हिंदी प्रदीप, उचित वक्ता जाद हिदी, उर्दू, बंगला, मराठी आदि के अनेक अखबारों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाई। भारतेंदु ने 'कविवचन सुधा' के माध्यम से अशा वस्त्र पहनने को कहा। 'सोचो तो यारो बम क्या है' जैसी भड़काला कविताओं तथा उग्र विचारवाले लेखों के कारण “हिंदी प्रदीप" को सरकारी कोप का भाजन बनना पड़ा।


‘उचित वक्ता' नामक पत्र के द्वारा पं. दुर्गा प्रसाद मिश्र ने भारतीयों को दासता के चंगुल से मुक्त होने को प्रेरित किया। नवशक्ति, वन्देमातरम हिन्दुस्तान, ब्राह्मण, युगान्तर आदि समाचार पत्र अपनी राष्ट्रीयता के कारण ही जनप्रिय बने। इन पत्रों के लेखों के शब्द तलवार की धार से भी तीक्ष्ण होते थे। चीफ जस्टिस लारेन्स जेन्किन्स ने कहा, 'इन पत्रों की हर पंक्ति से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्वेष टपकता है, इनकी हर पंक्ति में क्रांति की उत्तेजना झलकती है।'


युगान्तर में बम बनाने की प्रक्रिया व विधि भी प्रकाशित की गई थी। समाचार पत्र के मूल्य के स्थान पर छपा था 'फिरंगरि काचा माथा' अर्थात फिरंगी का कटा हुआ सिर।

लोकमान्य तिलक ने 'केसरी', और 'मराठा' जैसे सशक्त समाचार पत्रों से असहयोग, कानून भंग, विद्रोह, बहिष्कार जैसी भावनाओं का प्रचार किया। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, महर्षि अरविन्द, तिलक ने लेखनी से ही जनमानस में यह विचारधारा प्रवाहित कर दी कि स्वतंत्रता भीख माँगने से नहीं मिलेगी। उसके लिए हमें प्राणों पर खेलना होगा। विपिन चन्द्रपाल, बालमुकुन्द, हेमेन्द्र प्रसाद, विष्णुशास्त्री आदि पत्रकारों के लेखों से प्रभावित होकर अनेक लोग मा भारती की सेवा के लिए निकल पड़े। 'स्वराज्य की आवश्यकता' लेख से तिलक ने 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार' की भावना को प्रबल रूप देकर जन-जन में प्राण फूंके।


लेखन के माध्यम से स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए पत्रकारों को कितने कष्ट व यातनाएँ सहनी पड़ीं, यह स्पष्ट हो जाता है 'स्वराज्य' के संपादक के रिक्त पद के लिए छपे इस विज्ञापन से, "चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन दो सूखी रोटियाँ, एक गिलास पानी और हर संपादकीय के लिए दस साल की जेल।"

'कर्मयोगी' पढ़ना तक भी ब्रिटिश सरकार की नज़र में अपराध था। यह समाचार पत्र पढ़ने मात्र से ही अनेक हिंदुस्तानियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। गणेश शंकर विद्यार्थी ने उग्र लेख लिखने के अपराध में जेल में कठोर यातनाएँ सहीं।


गांधी जी ने लिखा-मेरा ख्याल है, ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलाई जा सकती। गांधी जी ने भी अपने विचारों को समाचार पत्रों के माध्यम से जनसामान्य तक पहुंचाकर स्वतंत्रता का मार्ग दिखाया। कहा जा सकता है कि समस्त देशवासियों के मन व मस्तिष्क को झंकृत करने में समाचार पलों की विशिष्ट भूमिका रही। इन्हीं के कारण स्वतंत्रता आंदोलन को सही दिशा मिली और देश आजाद हुआ।