परीक्षा भवन का दृश्य 
Pariksha Bhawan ka Drishya

बचपन से ही बोर्ड की परीक्षा का भय मेरे मन में समाया हुआ था। मैंने जब दसवीं कक्षा में प्रवेश किया तो घर, विद्यालय यहाँ तक कि मित्रों में चर्चा का विषय परीक्षा ही रहती थी। परीक्षा कैसी होगी? परीक्षा कैसे आएँगे? हमारा परिणाम कैसा रहेगा?- जैसे अनगिनत सवाल सदा मन व मस्तिष्क में छाए रहते थे।

 

वर्षभर की कड़ी मेहनत के पश्चात मार्च का वह महीना आ गया जिसके विषय में असंख्य दिनों से उत्सुकता, जिज्ञासा व घबराहट थी। पहला प्रश्न पत्र अंग्रेज़ी का था। रात को देर तक परीक्षा की तैयारी करता रहा। तरह-तरह के निबंध, गद्यांश आदि पढ़ता रहा। सुबह अलार्म बजा तो माँ सामने खड़ी थीं। उन्होंने बड़े प्यार से सिर पर हाथ फेरा और उठाया।

 

जल्दी-जल्दी तैयार होकर विद्यालय के लिए निकला। माँ-पिता जी मुझे परीक्षा भवन तक छोड़ने के लिए पहले से ही तैयार थे। परीक्षा भवन के बाहर छात्र-छात्राएँ उत्सुकतावश एक दूसरे से तरह-तरह के प्रश्न पछ रहे थे। इधर हमारे विद्यालय के अध्यापक भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने सफलता के लिए तरह-तरह की शुभकामनाएँ दीं। मैंने माता जी और पिता जो तथा अपने अध्यापक के चरण छए तथा परीक्षा भवन की तरफ़ चल पड़ा।

 

परीक्षा कक्ष अत्यंत विशाल था। यहाँ लगभग सौ छात्रों के बैठने की व्यवस्था थी। कुछ छात्र आपस में मदद करने का अनुरोध भी कर रहे थे। कुछ छात्र कह रहे थे कि वे इशारों से प्रश्न-उत्तर पूछ सकते हैं। मेरे कुछ मित्र मुझ पर भी दबाव डालने लगे कि मैं उन्हें उत्तर लिखवाने में मदद करूँ। परंतु मेरे कानों में हमारे अध्यापक के शब्द गूंज रहे थे। मैंने मन ही मन तय कर रखा था कि मैं कोई भी ऐसा काम नहीं करूँगा जिससे विद्यालय तथा मेरे माता-पिता की प्रतिष्ठा को कोई ठेस पहुंचे।

 

अब अध्यापक परीक्षा कक्ष में पधारे। सब छात्रों ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। अध्यापकों के हाथ में प्रश्नपत्र व उत्तर-पुस्तिकाएं थीं। हर छात्र को उत्तर-पुस्तिका मिलनी आरंभ हई। अब वह क्षण आ गया था जिस पर मेरी वर्षभर की मेहनत का परिणाम निर्भर करता था। मुझे माता जी की समझाई सब बातें याद थीं कि धैर्यपूर्वक प्रश्नपत्र को पढ़कर हो लिखना प्रारंभ करना है। मैंने मन ही मन सब देवताओं को प्रणाम किया। तभी अध्यापक महोदय ने मुझे मेरी उत्तर-पुस्तिका दी।

 

सब छात्र शांत भाव से बैठे थे। सबकी आँखों से जिज्ञासा स्पष्ट झलक रही थी। कहीं भी कोई ध्वनि सुनाई नहीं दे रही थी। केवल कागजों की खड़खड़ाहट गूंज रही थी। अध्यापक तेजी से प्रश्नपत्र बाँट रहे थे। जिन छात्रों को प्रश्नपत्र मिल गए थे, उनके चेहरों पर तरह-तरह के हाव-भाव झलक रहे थे। कुछ फुर्ती से नज़र घुमाते हुए सभी प्रश्नों पर सरसरी नज़र डाल रहे थे। कुछ माथा पकड़कर बैठ गए। कुछ खुशी से इधर-उधर उचक-उचक कर इशारे कर रहे थे। अध्यापक महोदय ने गंभीर मुद्रा से सब छात्रों को जैसे ही देखा, सबकी नज़रें अपने प्रश्नपत्र में समा गईं।

 

प्रश्नपत्र मिलने तक हृदय में अनोखी हलचल होती रही। जैसे ही प्रश्न पत्र मिला, हृदय की धड़कन बढ़ गई। प्रश्नों को सरसरी नज़र से पढ़ते हए मन में खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने पैन उठाया और लिखना आरंभ कर दिया।

 

सारा परीक्षा कक्ष शांत था। अध्यापकों के कदम साफ़ सनाई पड़ रहे थे। किसी को किसी की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी। तेजी से लिखते छात्र मानो अपना सुनहरा भविष्य स्वयं अपने हाथों से लिख रहे हों।

 

अध्यापकों की निरीक्षण-संबंधी कुशलता सराहनीय थी। प्रत्येक छात्र को किसी कुशल जौहरी की भाँति परखा जा रहा था। सब गर्मी व प्यास से बेहाल थे पर पानी पीने की फुरसत किसे थी? हर क्षण कीमती था। तीन घंटे का समय कब और कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। परीक्षा समाप्त होने की घंटी बजी। अध्यापक त्वरित गति से उत्तरपुस्तिका संचय में जुट गए। छात्र-छात्राओं का मौन भंग हुआ। कक्ष में तरह-तरह की आवाजें गुजने लगीं। सब चर्चा में मग्न थे। कहीं उदासी, कहीं जोश तो नहीं खुशी- ऐसा अद्भुत सामंजस्य लिए था परीक्षा कक्षा