नदी की आत्मकथा 
Nadi ki Aatmakatha 

हिमालय से निकलकर कल-कल ध्वनि करती बहती मैं गंगा नदी हूँ। हज़ारों किलोमीटर का सफ़र कर निरंतर बहते-बहते मैं सदा आगे बढ़ती हती है और अंत में थककर असीम सागर की गोद में कुछ विश्राम पाती हूँ।

 

लोग मुझे अत्यंत पावन मानते हैं। कहा जाता है कि स्वर्गलोक से निकलकर शिव जी की जटाओं में मुझे स्थान मिला। कैलाश पर्वत पर विराजमान शिव जी ने मुझे जनकल्याण के लिए धरा पर प्रवाहित किया। मेरी उद्गम स्थली गोमुख अत्यंत मोहक है। दूर-दूर तक हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाएँ तथा मेरा शीतल, निर्मल जल हजारों सैलानियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। मेरे इस मनमोहक रूप को देखकर कवि ने कह डाला-

हिमगिरि के हिम से निकल-निकल

यह विमल दूध-सा हिम का जल

कर-कर निनाद कलकल छलछल

बहता आता नीचे प्रतिपल।

 

हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं पर आज से हजारों वर्ष पूर्व घने जंगल थे। भाँति-भाँति की जड़ी बूटियाँ व वृक्षों से टकराकर मेरी उन्मत्त लहरें आनंद विभोर होकर आगे बढ़ती जाती थीं। तब मेरा जल स्वच्छ था। मेरा शरीर इतना पारदर्शी था कि उसमें तैरती मछलियाँ, शंख व सीपियाँ साफ़ दिखाई पड़ती थीं।

 

में भिन्न-भिन्न प्रांतों की यात्रा करते हुए बहती रहती थी। तपस्वी मुझमें स्नान कर मेरी तथा सूर्य की अर्चना करते तो मेरा हृदय गद्गद हो उठता था। स्त्रियाँ रात्रि के समय दीप दान करती तो मेरा तन चमक उठता या। बच्चे मेरी उस संदूरता को देखकर तालियाँ बजाते तथा बड़े-बूढ़े श्रद्धानत हो जाते थे।

 

धीरे-धीरे समय बीतता गया। मैंने बनते-बसते नगरों को देखा। इलाहबाद बनारस, कलकत्ता जैसे बड़े-बड़े शहरों में आकर मैं स्तब्ध हो शांत बहती हूँ। मैदानों में बहती हुई मेरठ, अलीगढ़ को पार कर फ़रुक्खाबाद में रामगगा मुझमें मिलती है। इलाहबाद में यमुना नदी मुझमें मिल जाती है। गगा डेल्टा बहुत बड़ा है, यह बंगाल की खाड़ी से पहले ही शुरू हो जाता है। मेरे तट पर बसे नगरों के बदलते स्वरूप को देखकर मेरा हृदय रो पड़ता। है। बढ़ती आबादी के कारण लोगों की आस्था भी समाप्त होती जा रही है। मेरे तटों पर घाट बनाए गए। अब हज़ारों की संख्या में लोग वहाँ स्नान करते हैं। मेरा जल अत्यंत दूषित हो गया है। 'मोक्षदायिनी' स्वरूप में कभी मेरा जल अमृत के समान माना जाता था, अब वही जल गंधयुक्त हो गया है।

 

वनों की कटाई से मेरे जल के साथ टनों मिट्टी भी पहाड़ों से बह आती है। अब मेरा औषधियुक्त जल भी अपना वास्तविक स्वरूप बदल चुका है। यह जल बड़े-बड़े पाइपों द्वारा नगरों में पीने के लिए भेज दिया जाता है। मेरे शरीर को मानव ने कितने आघात पहुँचाए हैं, इसका कोई हिसाब ही नहीं!

 

अब कहीं घाट पर बैठकर कोई वस्त्र धोता है तो कहीं कारखानों का प्रदूषित मल व कूड़ा मुझमें प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं जलप्रपात बना विद्युत बनाई जाती है। आधुनिकता की इस होड़ ने मुझे मेरे प्राकृतिक स्वरूप से बदल डाला है। कहीं मेरे जल को रोक लिया जाता है, कहीं। मोड दिया जाता है। कहीं मुझे नौका परिवहन के द्वारा दषित किया जाता है। कभी-कभी लगता है कि मैं अपने तट पर बसे नगरों के व्यापारिक दृष्टिकोण का शिकार बनकर रह गई हूँ।

 

मुझे वे दिन याद आते हैं जब मेरे तट हरे-भरे जंगलों से घिरे रहते थे। पक्षियों का कलरव सुनकर मेरा मन खिल उठता था। तरह-तरह के पक्षी मेरा जल पीकर लंबी उड़ान भरते थे। जंगली जानवर मेरे तट पर। आकर विश्राम करते और अपनी तृषा शांत करते थे।

 

भी समय था जब मेरे तट पर गुरुकुल व आश्रमों की स्थापना की गई थी। वेदमंत्रों के उच्चारण व समिधा की सुगंध से सारा वातावरण महकता था। मुझमें तरह-तरह का मछलियों व जीव-जंतु आश्रय पाते थे। मेरे पावन जल से अनेक संतप्त लोगों के रोग दूर जाते थे। तपस्वी मेरी अराधना किया करते थे।

 

मुझमें कितने ही तपस्वियों ने जल-समाधि लेकर मोक्ष प्राप्त किया। आज नर-कंकालों से मेरा जल कलुषित हो गया है। कहीं-कहीं तो मेरा जल सूख गया है। वर्षाकाल में अनेक बरसाती नाले मुझमें आश्रय पाते हैं। तब इस अव्यवस्था के प्रति मेरा हृदय चीत्कार उठता है तथा मैं अमर्यादित होकर जल प्लावन का दृश्य उपस्थित कर देती हैं।

 

वेदों-पुराणों में मेरी महिमा का गान किया गया है परंतु मेरी दशा आज बहुत दयनीय है। मेरी ऐतिहासिक व पौराणिक महिमा का ध्यान रखते हुए वर्तमान युग में मेरे परिष्कार की विभिन्न योजनाएं बनाई गई हैं। मेरे तटों पर लगनेवाले कुंभ के मेलों के समय मेरी सफ़ाई आदि की तरफ़ खास ध्यान दिया जा रहा है। मेरे उद्गम स्थल पर अनेक प्रकार के वृक्षों को लगाया जा रहा है ताकि मैं अपनी प्राचीन संपन्नता प्राप्त कर सकूँ।

 

परिस्थितियाँ बदल जाने पर भी पत्थरों को तोडती, चट्टानों से टकराती हुई क्षीणकाय मैं निरंतर प्रवाहित होती रहती हूँ।

 

ढाई हजार किलोमीटर लंबी कहलाने वाली मैं गंगा नदी अपने तटों पर बसे हज़ारों, लाखों लोगों को एकता के सूत्र में बाँधकर, अपने उद्गम से बंगाल की खाड़ी तक के मैदानों को उपजाऊ बनाकर समुद्र की गोद में विश्राम करती हूँ।