अनेकता में एकता 
Anekta me Ekta 


अनेकानेक धाराओं को अपने में समेटती गंगा के समान संपन्न है, हमारा देश भी। विश्व का शायद ही कोई धर्म हो, जिसके अनुयायी यहाँ न रहते हों। हिंदू और बौद्ध धर्म की तो जन्मभूमि ही है यह पावन धरा । खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, गीतअंगीत. रीति-रिवाज, आचार-विचार, भाषा-बोलियों का जितना वैविध्य भारत में है, उतना विश्व के किसी एक देश में नहीं। इतनी विभिन्नता के होते यह बिखर जाता तो आश्चर्य की बात नहीं होती. लेकिन यह सदियों से ऐसे ही एक सूत्र में बँधा है-निश्चय ही यह एक अनुपम, विलक्षण बात है। यह संभव हो सका क्योंकि मूलत: भारतीय मानस उदार और सहिष्णु है। हमने मगलों को स्वीकारा और अंग्रेजों को भी। उनसे पूर्व हूण, कुषाण, यूनानी, तुर्क-न जाने कितनी जातियाँ इस सोने की चिड़िया' के आकर्षण से बँधी हुई यहाँ आईं। हमने उनके श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात कर लिया। आज हमारे खान-पान, रीति-रिवाजों, गीत-संगीत और बोलियों में कितना अंश विदेशी है, कहा नहीं जा सकता। हम इन विदेशी प्रभावों का भारतीयकरण कर देने में दक्ष रहे हैं, इसीलिए आज हमारी संस्कृति में बिखराव नहीं, एकसूत्रता है। हमारे तीर्थ-स्थल, हमारे पूज्य संत, हमारे आराध्य देव देश के किस क्षेत्र से संबंधित हैं, इसका कोई महत्त्व नहीं। महत्त्व है तो उनकी पावनता, उनके विचारों का, जिसे अपने जीवन में हर भारतीय स्थान देता है। न कृष्ण ब्रज के हैं और न ही चैतन्य केवल बंगाल के। एक धर्म वाले ही नहीं वरन्, सभी धर्मों वाले परस्पर प्रेम और सौहार्द से रहते आए हैं। इस एकता को नष्ट करने के प्रयास पहले भी हुए थे, आज भी हो रहे हैं, लेकिन न वे पहले सफल हुए और न ही अब हो सकेंगे। 'वसुधैव कुटुंबकम्', तथा 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' की भावना जिसके रक्त में प्रवाहित हो, वहाँ अलगाववादी विचारों का पनपना संभव नहीं। भाँति-भाँति के रंग-सुवास से सजे पुष्पों की इस सुंदर बगिया पर हमें गर्व है और इसी वैविध्य में हमारी संपन्नता और विशिष्टता है-यही हमारी पहचान है।