मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना 
Majhab Nahi Sikhata Aapas me Bair Rakhna 


'रस्ते अलग-अलग हैं, ठिकाना तो एक है

मंज़िल हरेक शख्स को, पाना तो एक है।' 

मजहब कहें, संप्रदाय कहें या धर्म, सबका लक्ष्य एक रहा है-मानव-कल्याण। प्रभु की सत्ता के सम्मुख विनत हो कृतज्ञताज्ञापन करना उन तक पहुँचने के लिए जीवन को विकार-रहित बनाकर, श्रेष्ठ गुणों को अपनाना। सत्य तो एक है, ईश्वर एक है, तब उस तक पहुँचने के मार्गों में भले ही अंतर हो, लक्ष्य या मूल तत्व तो एक ही होगा। कोई कुरान पढ़कर, नमाज अदा करता है, तो कोई वेद-पुराण, गीता, रामायण पढ़कर पूजा-अर्चना करता है, कोई बाइबिल का पाठ कर क्रॉस के आगे नतुमस्तक होता है, तो कोई गुरुग्रंथ साहिब का पाठ पढ़कर सबद-कीर्तन करता है। पूजा-विधियों को लेकर मतभेद भले ही हों, मन-भेद नहीं होना चाहिए क्योंकि हर धर्म एक सत्य को स्वीकार करता है कि 'ईश्वर एक है', हम सब उसकी संतानें हैं। बस जैसे ही हम इस मलभूत सत्य को विस्मृत करते हैं, हम भटक जाते हैं और यह भटकन विकृत रूप लेती है, सांप्रदायिक दंगों या आतंकवाद के रूप में। धर्म गुरु जब धर्म के मूल-तत्व पर बल न देकर बाहरी रूप पर बल देने लगते हैं या अपने धर्म को ही श्रेष्ठतम सिद्ध करने लगते हैं, तब ही ये सारी समस्याएँ जन्म लेती हैं। आम व्यक्ति के लिए धर्म का मर्म जानना कठिन होता है, इसीलिए धर्म सों का यह दायित्व है कि वे अपने अनुयायियों का सही मार्गदर्शन करें। तुलसीदास जी ने धर्म का स्वरूप मात्र दो पंक्तियों में परिभाषित कर दिया है- 'परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाहि।' संस्कृत का एक सत्र है- 'धर्मः यो

बाधते धर्मं न स धर्मः कुधर्म तत'-अर्थात वह धर्म नहीं कुधर्म है, जो दूसरे धर्म को बाधित (रुकावट) करता है।

'धर्म वही है जो आदमी को, आदमी के लिए जीना सिखा दे। 

जो मौलवी पंडित पादरी को, एक घट से पीना सिखा दे।'