एनी बेसेंट 
Annie Besant


भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन के क्षेत्र में डॉ. एनी बेसेंट का स्थान वोच्च है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना में विश्वास रखनेवाले कुछ गिने-चुने ही महापुरुष होते है जो अपना सारा जीवन मानव-सेवा में अर्पित कर देते हैं। ऐसे महानुभावो में डॉ. एनी बेसेंट का नाम सदा भारत के इतिहास में लिया जाता रहेगा।


एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्तूबर, सन 1847 में इंग्लैंड में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं पर हुई। बचपन से ही वे अत्यंत प्रतिभासंपन्न व चिंतनशील बालिका थीं। विवाह के पश्चात वे अपने पारिवारिक जीवन से प्रसन्न न रहीं। बचपन से ही वे एकांत में एकाग्रचित्त बैठा करती थीं। आध्यात्मिक विश्वासों से युक्त इस महात्मा स्त्री के मन में सामाजिक परेशानियों से तंग आकर एक बार जीवन को अंत कर देने का विचार आया। तब उन्हें अपनी आत्मा की आवाज सुनाई दी और उन्होंने मानव सेवा व सत्य अन्वेषण का मार्ग चुना।

इस बीच वे अनेक संतों व समाजसेवियों से मिलती रहीं। उन्होंने अनेक आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया। अंत में वे मैडम ब्लैवत्सकी नामक महिला से मिलीं। जिनसे विभिन्न विषयों पर वार्तालाप के पश्चात उनके मन में विश्वबंधुत्व की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने यूरोप के अनेक देशों का भ्रमण किया। वे अमेरीका, न्यूजीलैंड तथा आस्ट्रेलिया भी गई। अंत में वे भारत की पुण्य भूमि पर आईं। 


जिन दिनों वे भारत आईं. उन दिनों भारत के विभिन्न भागों में अंधविश्वास व अनेक सामाजिक बुराइयों ने समाज को जकड़ रखा था। उन्हीं दिनों परदा प्रथा, बाल विवाह, अशिक्षा के खिलाफ़ यहाँ कुछ आंदोलन भी चल रहे थे। डॉ. एनी बेसेंट ने उनमें उत्साहपूर्वक भाग लिया। वे अशिक्षा, अंधविश्वास तथा महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार जैसी बुराइयाँ को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती थीं।


डॉ. एनी बेसेंट ने पं. मदनमोहन मालवीय के साथ मिलकर सामाजिक कार्य किए। बनारस में 'सेंट्रल हिंदू कॉलेज' की स्थापना गई। इसके संचालन के लिए देश-विदेश के विद्वानों को आमंत्रित गया। बिट्रेन तथा अमेरिका से भी लोग आए जिनमें डॉक्टर ए रिचर्ड तथा डाक्टर जी. एस. अरुण्डेल जैसे विद्वानों का नाम प्रमुख तौर पर लिया जा सकता है। इन सबके समवेत प्रयत्नों से भारतीय युवाओं में वैचारिख क्रांति आई। देश में स्त्री शिक्षा की दिशा में एक लहर दौड़ गई।


सन 1907 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसाइटी की अध्यक्षा चुनी गईं। उन्होंने इस पद के माध्यम से भी सत्य का प्रचार व प्रसार किया। इसके साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक कर्मठ सैनानी की तरह उन्होंने भाग लिया। जब देश में अंग्रेजी सरकार के कानूनों द्वारा भारतीयों के खिलाफ़ कुचक्र रचे जा रहे थे, तब उन्होंने 'कामनवेल' नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला और भारतीयों को सचेत व जागरूक बनानेवाले अनेक लेखों का प्रकाशन किया। उन्होंने अनेक वर्षों तक 'न्यू इण्डिया' नामक समाचार पत्र का भी बड़ी कुशलता से संचालन किया।


डाक्टर एनी बेसेंट दिन-रात भारतवासियों की सेवा में जुटी रहीं। उन्हें इस देश की धरती से अगाध प्रेम हो गया था। उन्होंने भारत की प्राचीन गौरवशाली संस्कृति को जाना तथा उसे उस महिमामयी अवस्था की ओर ले जाने का भरपूर प्रयत्न किया। उनकी विशिष्ट सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें सन 1917 के कलकत्ता अधिवेशन में विशेष निमंत्रण दिया गया। वहाँ उन्होंने अत्यंत भावविभोर होकर जो भाषण दिया, उसके एक-एक शब्द में भारत तथा भारतवासियों के प्रति प्रेम झलक रहा था।


वे इंडियन नेशनल कांग्रेस का भी सदस्या बनीं। माना जाता है कि सन 1921 में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के लिए 'नेशनल कन्वेंशन' नामक आंदोलन चलाया और ब्रिटिश पार्लियामेंट में एक बिल रखा। इसमें स्पष्ट माँग की गई थी कि भारतीयों को उनके सभी अधिकार लौटाए जाएँ।


डॉ. एनी बेसेंट ने स्वतंत्रता आदोलन का क्रातिकारी रूप देने के लिए भरसक प्रयत्न किए। वे इंग्लैंड गई। स्थान-स्थान पर घूमकर उन्होंने जनमत किया। अपने मार्मिक भाषणों द्वारा अंग्रेजी सरकार की जानकारी जनता को दी। उन्होंने इन सब कार्यों के लिए विभिन्न आर्थिक, शारीरिक व मानसिक पीड़ाएं झेली।


डॉ. एनी बेसेंट ने भारतीय युवाओं की वैचारिक क्रांति के लिए 'गर्ल ड' व 'बॉय स्काउट' नामक कार्यक्रम चलाए। इन कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य समस्त मानव जाति का उद्धार तथा विश्वभर में भाईचारे की भावना का संचार करना था। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना भी की। सन 1932 में ऑल इंडिया बॉय स्काउट एसोसिएशन' की तरफ से उन्हें सम्मानित भी किया गया।


डॉ. एनी बेसेंट के सभी आंदोलनों का सूत्र मानवता से जुड़ा था। उन्होंने अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगा दिया। अशिक्षा, स्त्रियों का शोषण, मजदूरी का शोषण, शारीरिक दंड प्रथा, दास प्रथा आदि अनेक कुप्रथाओं का अंत करने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।


बेसेंट न केवल समाज सुधारक थीं अपितु चिंतनशील लेखिका भी थीं। उन्होंने अनेक वर्षों तक कई दैनिक व साप्ताहिक समाचार पत्र निकाले। पत्रों में लेख लिखे। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग तीन सौ पुस्तकें लिखी निश्चित रूप से वे विलक्षण प्रतिभा संपन्न लेखिका, राजनीतिज्ञ, लोकसेविका व समाज-सेविका थीं। उन्होंने पथभ्रष्ट युवकों को सत्य की राह दिखाई। वे आजीवन अपने शुद्ध मनोबल द्वारा सत्य तथा आदर्श को जन-जन में पोषित करने का प्रयत्न करती रहीं। 


21 सितंबर, सन 1933 को उनका स्वर्गवास हुआ। उन्होंने लिखा था कि मृत्यु के पश्चात वे अपनी समाधि पर लिखवाना चाहती है कि- 'उसने सत्य के अन्वेषण में अपने प्राणों की बाजी लगा दी।‘


निश्चित रूप से इस महान स्त्री ने सत्य की चिर साधना तथा मानवता का आराधना के प्रति जिस मनोबल, तपस्या, सेवा का प्रदर्शन किया, वह भारतीय ही नहीं विश्वभर के इतिहास में सदा अमिट रहगा। वो महान नारियों में सदा याद की जाती रहेंगी जिनकी गौरव-गरिमा, आचरण तथा महान सेवाओं का दूसरा सामी नहीं।