बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया 
Baap Bada na Bhaya, Sabse Bada Rupya 

जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में हमने अर्थ अर्थात पैसे को स्थान देकर इसकी महत्ता को स्वीकार किया। है। अर्थ से पहले धर्म को स्थान देने के पीछे यही भावना रही कि धर्म आधार हो अर्थ का। सामाजिक, पारिवारिक संबंधों और। उत्तरदायित्वों को निभाना हमारा धर्म है। हमने लक्ष्मी को ही नहीं, राम को भी पूजा, जिन्होंने संयम, मर्यादा और त्याग का आदर्श स्थापित किया। हमने कृष्ण की आराधना की, जिन्होंने कर्मशील बने रहने की प्रेरणा दी, लेकिन आज इन सब आदर्शों को भूलकर हम मात्र लक्ष्मी के उपासक बन गए हैं। यथास्थिति कुछ ऐसी है-

'कहाँ तलाशें इन दूंठों में अमराई? 

लाल-लाल कोंपल से रिश्ते ढूँठ हुए। 

बाबा के बट-पीपल खंखर-प्रेत हुए।

कहाँ तलाशें दोपहर में परछाई?' 

माता-पिता और संतान के बीच, भाई-भाई, भाई-बहन, यहाँ तक कि पति-पत्नी के बीच जो संवेदना और स्नेह के सूत्र थे, वे भट ने तहस-नहस कर दिए हैं। माता-पिता की बुढ़ापे में सेवा करना तो दूर, उनका सब कुछ छीनकर सड़क पर बैठा देने वाले बेटों, भाई का संकट में साथ देना तो दूर, उसका पैसा हड़प जाने की घटनाओं के समाचारों से भरते जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने। स्नेह, संवेदना और त्याग हर संबंध की मज़बूत जड़ें होती हैं। पैसों का लालच उन्हीं पर कठाराघात कर रहा है। बेटा लिए माँ का सिर दीवार से फोड़कर लहूलुहान कर रहा है क्योंकि वह अपना फ़्लैट उसके नाम कर देने में सहयोग नहीं दे दी है। देवर अपनी विधवा भाभी के लिए सुपारी इसलिए दे रहा है जिससे अपने मृत भाई की सारी जायदाद पर कब्जा कर सके। अच्छे घरों की लड़कियाँ तक चंद सिक्कों के लिए ज़िस्म फ़रोशी के धंधों में उतर रही हैं। हमारी कचहरियों में चलने वाले करोड़ों मुकदमों में से अधिकांश में पैसा ही समस्या है। अपहरण-फ़िरौती की वारदातें, आज आम बात होती जा रही है। व्यापारी हों या दफ्तरों के बाबू, सभी लूटने में लगे हैं। इस नैतिक पतन का एक मात्र कारण हमारे त्रुटिपूर्ण जीवन-मूल्य है। पैसे को सर्वोपरि स्थान देकर हम स्वयं अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।