भूकंप का दृश्य
Bhukamp ka Drishya 


'विकट पटह से निर्घोषित हो, 

बरसा विशिखों का आसार। 

चूर्ण-चूर्ण कर वज्रायुध से 

भूधर को अति भीमाकार।'

अचला धरती काँप उठी और काँप उठी विशाल अट्टालिकाएँ ! पलक झपकते सुरम्य उपवनों, भवनों से सुसज्जित नगर तहस-नहस हो ध्वसांवशेष बनकर रह गया। चारों ओर चीख पुकार, मलबे के ढेर, ढेरों में दबी चीखें-सिसकियाँ, लाशों के ढेर में अपनों को तलाशते काँपते हाथ! कहीं बूढ़ा बाप अपने जवान बेटे-बहू और नन्हें मासूम पोते के चिथड़ा हुए जिस्मों को बटोर रहा था, तो कहीं नन्हा बच्चा चीख-चीखकर मृत पड़ी माँ को जगाने का प्रयास कर रहा था। कल तक जिसकी आँखों में सतरंगी सपने थे, आज बस गर्द ही गर्द थी। गिनती के जो लोग बच गए थे, वे भी जिंदा लाश के समान थे-सुनी आँखें, उदास चेहरे, समझ नहीं पा रहे थे कि जिंदा रहने पर खुशी मनाएँ या सब कुछ लुट जाने का मातुम ! बचाव दल के साथ जब मैं वहाँ पहँचा/पहुँची, तो इस दश्य को देखकर मेरी रूह काँप गई। ऐसे विनाश की मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। तन-मन से जख्मी लोगों की पीडा हरने का कोई उपाय नहीं था। उनके घावों की मरहम-पट्टी तो की जा सकती थी, लेकिन सदा के लिए अपनों को खो देने, खून-पसीने से जमाई गृहस्थी के उजड़ जाने के ग़म की हमारे पास कोई दवा नहीं थी। जैसे-जैसे अँधेरा घिर रहा था, एक अजीब-सा सन्नाटा पसरता जा रहा था। लाशों की दुर्गंध, कुत्तों और सियारों का क्रंदन और कभी सन्नाटे को चीरती हई किसी के चीखने-रोने की आवाज़, दिल-दहला देने वाला वह दृश्य आज भी मेरे मानस-पटल पर जीवंत है।