उपभोक्ता संस्कृति 
Upbhokta Sanskriti


'जुटाना तो थोड़ा ही था 

बहुत अधिक पा गए हो। 

दौड़ ऐसी दौड़े हो कि

बहुत दूर आ गए हो।' 

इंसान की इंसानियत से दूरी बढ़ती जा रही है और इसका कारण है-उपभोक्ता संस्कृति । संस्कारों से विहीन ऐसी संस्कृति जिसमें वस्तुएँ ही नहीं व्यक्ति भी उपभोग का साधन बनता जा रहा है। निहित स्वार्थ के सम्मुख दया, करुणा, सहानुभूति, स्नेह जैसे मानवीय-मूल्य हाशिये पर डाल दिए गए हैं। उपभोक्ता संस्कृति, ऐसी जीवन पद्धति है जिसका मूल-मंत्र होता है-'खाओ पियो और मौज करो।' भौतिक सखों को अधिक से अधिक साधन जुटा लेना ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य बन जाता है। जीवन पर बाजारवाद छा जाता है, परिणाम स्वरूप हम रिश्तों में भी प्यार-सौहार्द्र के स्थान पर उनसे प्राप्त उपहारों को महत्त्व देने लगते हैं। 'फादर्स डे' 'मदर्स डे' 'फँडशिप डे' के रूप में उपहारों के आदान-प्रदान से जोडे गए रिश्ते भी उन वस्तुओं जैसे ही बेजान बनते जा रहे हैं। पैसा ही जीवन का केंद्र बनता जा रहा है। इस संस्कृति का आधार 'देना' नहीं 'पाना' या 'लेना' है। 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' की भावना पर आधारित हमारी भारतीय संस्कृति अब मात्र अपने सुख के विषय में सोचने वाली संस्कृति बन चुकी है। इसीलिए न 'दामिनी' का आर्तनाद उसे सुनाई देता है और न ही सड़क पर घायल पड़ा व्यक्ति दिखाई देता है। मुँह फेरकर चल देना सिखा देने वाली इस प्रवत्ति के विषय में ईसा का यह कथन दृष्टव्य है'सारी दुनिया को पाकर भी इंसान क्या करेगा, यदि उसे पाने में वह अपनी आत्मा ही खो बैठे।'