भिक्षावृत्ति: एक समस्याBhikshavriti - Ek Samasya
‘परिहित सरिस धर्म
नाही भाई’ की भावना भारतीय संस्कृति का मूल रही है. इसी परोपकार तथा दान की
भावना से समाज के कुछ आलसी वर्गों को आत्मसमानहीन बना दिया है। वे दूसरों की उत्कृष्ट
भावनाओं का तिरस्कार करते हुए भिक्षा को अपनी आजीविका बनाये हैं। उनके आलस्य ने न
केवल उनके जीवन को अभिशाप्ग्रस्त बना दिया है अपितु यह राष्ट्र के लिए भी एक कलंक
बन गया है।
हम
देश के किसी भी भाग में चले जाएँ, भिखारियों की तादाद में उत्तरोत्तर वृद्धि ही दिखाई
पड़ती है। पर्यटक स्थलों
, धार्मिक स्थलों तथा दर्शनीय स्थानों पर ये भरी संख्या में मौजूद होते
है। इनमे से अधिकाँश
का समस्त परिवार भिक्षावृति
से जुड़ा है तथा वे निरंतर अनेक वर्षों से सड़कों , चौराहों
, गलियों , मदिरों तथा मस्जिदों प्रत्येक स्थान
पर भीख मांगकर अपने जीवन चलाते चले जा रहे हैं।
भिक्षावृति का मूल कारण देश की आर्थिक व
सामाजिक स्थितियाँ भी हैं। कुछ लोग अपात्र ही के कारण भीख माँगने लगते हैं तो कुछ
धर्म की आड़ में भी अन धारण कर यह कार्य करते हैं। अच्छे हष्ट-पुष्ट नवयुवक भी काम
कर भिक्षा की जीविका बना लेते हैं। इस वृत्ति पर किए गए विभिन्न सर्वशी की प्रता
चलता है कि इनका भीख माँगना मजबूरी नहीं अपितु आमदनी का सरल माध्यम है। इस
प्रवृत्ति ने सशक्त व्यवसाय का रूप भी धारण कर लिया है। अधिकांश भिक्षुकों को अपने
इस काम के प्रति कोई ग्लानि या घृणा का भाव नहीं है।
भिक्षावृति की समस्या बहुआयामी है। बड़े शहरों
में इस वृत्ति में लीन लोगों ने अपने संगठन बना लिए हैं। भिक्षा की आड़ में उनमें
से काफी सोग अन्य अनैतिक तथा असामाजिक गतिविधियों में भी लीन हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ
घटित हो चुकी हैं जिनमें चोरी तथा तस्करी के घृणित कामों में भिखारियों का हाथ था।
भिक्षावृत्ति की बढ़ती देशी को देखकर कहा जा
सकता है कि यह कुप्रवृत्ति समाज की उन्नति के मार्ग में बाधक है। कामचोरी तथा
अकर्मण्यता की भावना को पौषित करने वाली इस प्रवृत्ति को रोकने हेतु भिक्षावृत्ति
का सरकारी तौर पर निषेध किया जाना आवश्यक है। रुग्ण तथा विकलांग उलोगों को सामाजिक
संरक्षण प्रदान कर व्यवसायों में लगा देना चाहिए। इन लोगों को आश्रय देकर ही
कल्याणकारी उन्नतिशील देश की कल्पता की जा सकती है। दूसरी ओर, शारीरिक
दृष्टि से स्वस्थ लोगों के भीख माँगने को रोका जाना भी अत्यंत आवश्यक है।
भिक्षुकों की अधिकाधिक संख्या से देश की आर्थिक
स्थिति को तो नुकसान पहुँचता ही है साथ ही स्वाभिमानहीन ये लोग विदेशियों के
सम्मुख भी देश का मस्तक नीचा करते हैं। गुलामी के असंख्य वर्षों ने देशवासियों के
स्वाभिमान को काफी ठेस पहुँचाई थी। भिक्षुकों की बढ़ती जनसंख्या तथा निस्संकोच हाथ
फैलाने की प्रवृत्ति से देश की छवि को आज भी बहुत नुकसान हो रहा है।
भिक्षावृत्ति के उन्मूलन के लिए भी देशव्यापी
योजनाओं का निर्माण होना आवश्यक है। परोपकारवश इन भिक्षुकों की आजीविका
उत्पन्न करने भारतीय समाज जब तक इन्हें पोषित करता रहेगा तब तक यह भिक्षुक वर्ग
यूँ ही विकसित व पुष्ट होता रहेगा। समाज में जागरण लाने की भी आवश्यकता है कि भीख
देकर अपना अगला जन्म सुधारने के लिए उनका यह जन्म बिगाड़ना कहाँ का धर्म है !
परोपकारी वर्ग को चाहिए कि वे इस भिक्षुक समाज को नैतिक शिक्षा दें, उनकी
शिक्षा व रोजगार का पबंध करें ताकि वे सभ्य नागरिक बन देश की तरक्की में हाथ बटाएँ
न कि समाज पर एक बोझ बन अपनी कुप्रवृत्तियों से उसे दूषित व कलंकित करें।
आरंभ में भिक्षुकों के आवास की व्यवस्था व रोजगार का प्रबंध किया जाना आवश्यक है। भिक्षा को सामाजिक अपराध ही समझा जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आलस तथा कामचोरी की भावना ऐसे लोगों को पुनः भीख मांगने को प्रेरित करेगी। सामाजिक संस्थाओं का इस दिशा में काफ़ी योगदान हो सकता है। सरकार व समाज दोनों तरफ़ से समवेत प्रयासों द्वारा ही इस कुप्रवृत्ति का समूल नाश संभव है।
0 Comments