बुद्ध पूर्णिमा
Budh Purnima 


बौदध धर्म के अनुयायियों का पवित्र पर्व बुद्ध पूर्णिमा है। संसार के विभिन्न भागों में रहनेवाले बौद्ध इसे प्रतिवर्ष वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन श्रद्धा व उल्लास से मनाते हैं। बुद्ध पूर्णिमा का संबंध बौद्ध धर्म की स्थापना करनेवाले महात्मा बुद्ध से है।


माना जाता है कि इसी दिन महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। इसी दिन महात्मा बुद्ध को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी तथा बुद्ध पूर्णिमा कहे जानेवाली पूर्णिमा को ही उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ था। यही कारण है, इस पर्व का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है। बौद्ध अनुयायी इस दिन को अत्यंत पावन दिवस मानते हैं।


भगवान बुद्ध का जन्म आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अर्थात ईसा पूर्व 544 में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन शाक्य वंश के प्रमुख शासक थे। उनकी माता का नाम महामाया था। महामाया कपिलवस्तु से अपने मायके जा रही थीं। मार्ग में लुंबिनी नामक वन में शाल वृक्षों की छाया में एक बालक का जन्म हुआ। इस बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। बालक के जन्म के कुछ ही दिन बाद महारानी महामाया का स्वर्गवास हो गया। सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी सौतेली माता गौतमी ने किया। सिद्धार्थ के जन्म पर ही ज्योतिषियों ने यह घोषणा कर दी थी कि यह बालक संसार का उद्धार करने आया है। सिद्धार्थ बचपन से ही गंभीर प्रकृति थे। दया, करुणा आदि मानवीय गुण उनके आचरण में कूट-कूटकर भरे थे। उनके पिता ने उन्हें संसार के सब सुख देने का प्रयास किया तथा उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से कर दिया किंतु भोग-विलास के साधन सिद्धार्थ को अपनी ओर आकृष्ट न कर पाए।


एक दिन सिद्धार्थ ने एक वृद्ध व्यक्ति को देखा जो भली प्रकार से भी नहीं पा रहा था। आगे मार्ग में उन्हें एक रोगी मिला जो बेहोश पड़ा पड़ा था. थोडा आगे जाने पर उन्होंने देखा कि कुछ लोग एक मृतक को लिए जा रहे थे और उसके बंधू उसके पीछे रोते-पीटते जा रहे थे. सिद्धार्थ का मन अत्यंत विचलित हो गया. उसके मन में रह-रहकर असंख्य प्रश्न उठते। उन्हें एक संयासी के दर्शन हुए। जिसका चेहरा शांत था तब सिद्धार्थ ने सोचा यह दुख गया है। इससे छुटको का रास्ता क्या है। उन्होंने तय कर लिया कि वे संन्यास लेकर सांसारिक दुखों से मुक्ति प्राप्त कर लेंगे।


सिधार्थ राजमहल का त्याग कर दिया तथा विभिन आश्रमों में गए। अंत में श्री गया के समीप निरंजना नदी तट के वन में घोर तपस्या की तथा ज्ञान प्राप्त किया। उन्होने दुख, दुख का कारण तथा उसे दूर करने के उपायों का ज्ञान प्राप्त कर लिया. जिन दिन उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वेह वैसाख माह की पूर्णिमा थी. उन्होंने उस ज्ञान का विस्तार आरंभ किया तथा गौतम बुद्ध कहलाए।


गौतम बुद्ध ने वाराणसी के निकट सारनाथ जाकर पाँच शिष्य बनाए और संघ की स्थापना की तथा बौद्ध धर्म का प्रसार कार्य आरंभ किया। तब से आज तक युदध पूर्णिमा का पर्व उत्साह से मनाया जाता है। इस दिन लोग महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करने का व्रत लेते हैं। बुद्ध के चित्र चिपकाए जाते हैं। बुद्ध अनुयायी मंदिरों को सजाते हैं। महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का अभिषेक किया जाता है। इस दिन मंदिरों में प्रवचन होते हैं।  

बौद्ध धर्म के अनुयायी पंचशील की शपथ लेते हैं। वे मानते हैं कि किसी जीव की हत्या नहीं करेंगे, कभी चोरी नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंग, नशा तथा व्यभिचार नहीं करेंगे। इस दिन बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ भी मंदिर में सुनाई जाती है।


बौद्ध धर्म के अनुयायी बुद्ध पूर्णिमा के दिन पशु तथा पक्षियों को भी पिंजरे से मुक्त करवाते हैं। कुछ लोग, इस दिन को तीर्थयात्रा के लिए भी पुण्य आरंथ मानते हैं। इस दिन घरों में खीर बनाई जाती है। सुबह-सुबह नहा-धोकर लोग सफेद वस्त्र धारण करते हैं तथा मंदिरों में जाकर विधिवत पूजा की है। इस दिन दान-दक्षिणा दी जाती है।


बुद्ध पूर्णिमा का पर्व अलग-अलग देश में कुछ-कुछ विभिन्नताओं के साथ मनाया जाता है। जापान में बुद्ध पूर्णिमा के दिन मंदिरों में फूल चढ़ाए जाते हैं तथा घरों में भी फूलों के छोटे-छोटे मंदिर तैयार किए जाते हैं।  

श्रीलंका में इस दिन दीपक भी जलाए जाते हैं। बर्मा में वैशाख के पूरे महीने वट वृक्ष को जल से सींचा जाता है। घरों में बच्चों को जातक कथाएँ सुनाई जाती हैं। इस प्रकार बुद्ध पूर्णिमा का पर्व हर्ष-उल्लास से मानवीय गुणों को प्रेरित करने की प्रेरणा देते हुए संपन्न होता है।