कुंभ का मेल 
Kumbh Ka Mela


दैत्यराज बलि अत्यंत पराक्रमी, क्रूर व अत्याचारी था। बल व शक्ति के अहंकार में चूर वह नित्य देवताओं पर अत्याचार करने लगा। देवतागण बलि के अत्याचारों से त्रस्त होकर भगवान विष्णु की शरण में गए।  

विष्णु ने गंभीर चिंतन-मनन के पश्चात देवताओं को सागर मंथन का परामर्श दिया। विष्णु बोले, "देवगणों! मुझे ज्ञात है कि बलि के अहंकार व अत्याचार से समस्त देवलोक आतंकित हो रहा है। यदि आप लोग सागर मंथन कर अमृत कलश प्राप्त कर लें तो इस समस्या का निदान संभव है। सागर मंथन से निकले अमृत से अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं।" देवताओं को विष्णु की सलाह तर्कसंगत लगी। अमृत कलश का समाचार पाकर दानव भी सागर मंथन में जुट गए।


'देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तथा कामधेनु कल्पवृक्ष, पारिजातवृक्ष, चिंतामणि, कौस्तुभ मणि, उच्चाश्रवा अश्व, रंभा अप्सरा, ऐरावत हाथी, वारुणि, लक्ष्मी, चंद्रमा और शंख नामक रत्नों के साथ वैद्यराज धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश रूप में चौदह रत्न प्राप्त हुए। इंद्र का पुत्र जयंत सुधा कलश लेकर भाग खड़ा हुआ। दानवों ने देवताओं का पीछा किया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध के समय जयंत के हाथों पकड़े अमृत कुंभ से जो अमृत कण छलके, वे त्रिलोक में बारह स्थानों पर गिरे। इनमें से आठ स्थान देव लोक में थे और चार पृथ्वी लोक में ये चार स्थान हैं-हरिदवार प्रयाग, उज्जैन और नासिक। अमृतमय इन चारों स्थलों को हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ माना जाता है तथा इन चार पुण्य सरिता तीर्थों पर प्रतिवर्ष कुंभ पर्व का आयोजन होता है।


पुराणों में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार वरुण देवता अपनी माता को सर्पो की माता कन्दु की कैद से मुक्त कराने हेतु स्वर्ग से अमृत लाए थे। उन्होंने सर्पो को अमृत कलश सौंपकर अपनी माता को स्वतंत्र कराया। इंद्र उसे पुनः स्वर्ग ले गए। जब इंद्र इस अमृत कलश को स्वर्ग की ले जा रहे थे तो उससे पृथ्वी पर चार स्थानों पर अमृत छलककर गिर गया। कालांतर में इन्हीं स्थानों पर कुंभ पर्व का आयोजन किया जाने लगा। अमृत कलश की कई अन्य कथाएँ महाभारत, रामायण तथा पुराणों में मिलती हैं।


कुम्भ पर्व का आयोजन बारह वर्ष में एक बार किया जाता है। इस अवसर पर लाखों लोग, साधु-संत, धर्मगुरु स्नान के लिए मेले में आते हैं। धार्मिक प्रवचन व उपदेशों से समस्त वातावरण ही आध्यात्मिक हो उठता है।  

यह मेला विश्वभर में अनूठा मेला है। इस मेले में सांस्कृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों और शैलियों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। बिना प्रचार, अभियान व निमंत्रण के करोड़ों यात्री इस पूण्य स्नान में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं। भाषा, प्रांत और क्षेत्रीयता की सीमाओं को लाँघ यह पर्व अनेकता में एकता का प्रतीक-सा लगता है।


वस्तुत: कुंभ एक विशिष्ट धार्मिक स्नान का पर्व है। पर्व शब्द का तात्पर्य यहाँ मात्र मेला या उत्सव से नहीं। यहाँ पर्व शब्द अपने विशिष्ट सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करता है तथा इसमें जीवन की सार्थकता, मानवता, जन-चेतना की निष्ठा व उदारता की विशिष्ट झलक दिखाई पड़ती है। यह वह विशिष्ट पर्व है जहाँ प्रत्येक प्राणी अपने निहित स्वार्थों की परिधि लाँघ विशाल ब्रहमांड के दर्शनों को लालायित होकर परस्पर मिलता है। आध्यात्मिक चेतना से संबध कुंभ का पर्व भारतीय आध्यात्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अवधारणाओं का दर्पण बन मुखरित होता है।


हरिद्वार में गंगा, प्रयाग में गंगा-यमुना संगम, नासिक में गोदावरी और उज्जयिनी में शिप्रा नदी के तट पर कुंभ पर्व आयोजित होता है। वास्तव में कुंभ पर्व व गंगा नदी का अद्भुत संबंध है। भारतीय धारणाओं के अनुसार गंगा ब्रहम की प्रतिनिधि है। तत्वदर्शी उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश की समष्टिरूपा भी कहते हैं। गंगा जल भारतीय परंपरा में अति प्राचीन काल से नदी रूप में देवत्व व शक्ति का द्योतक माना गया है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अपनी जलीय गुणवता के कारण यह जल सर्वोपरी है.


जहाँ-जहाँ कुम्भ का मेला लगता है, उनमें से प्रयाग एवं हरिद्वार तो गंगा के किनारे बसे है. नासिक गोदवारी नदी के तट पर बसा है। गोदावरी की विन्ध्या क्षेत्र में दासहिं की गंगा के नाम से पुकारा जाता है। माना जाता है की गौतम ऋषि गंगा नदी को गोदावरी के नाम से इस प्रदेश में लाए थे इसीलिए इसे गौतमी नाम से भी जाना जाता है। ब्रहमपुराण में भी यह वर्णन मिलता है कि विंध्य पर्वत के दक्षिण में गंगा का नाम गौतमी पड़ा। शिप्रा नदी के विषय में भी यही धारणा है की यह नदी अपने प्रवाह के कारण पवित्रतम हो जाती है। स्कन्द पुराण में आए विवरण के अनुसार शिप्रा व गंगा एक बार आरितगतबन्ध हुई थीं. संक्षेप में कहा जा सकता है कि कुंभ कहीं न कही, किसी न किसी रूप में गंगा नदी से संबद्ध है।


कुंभ पर्व का नामकरण कुंभ राशि के नाम पर हुआ है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंभ पर्व सभी आयोजित होता है जब बृहस्पति का मेल किसी विशिष्ट राशि होता है तो उक्त विशेष योग में लाभकीय किरणें नदी के जल को अधिक मांगलिक व नैरोगिक बनाती हैं अतैव इस अवसर पर किया गया स्नान मनुष्य के लिए लाभकारी होता है।


ऐतिहासिक दृष्टि से कुंभ पर्व की प्राचीनता के विषय में विद्वानों में मतिमय प्राप्त नहीं होता। कुछ विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद व यजुर्वेद की कुछ कथाओं में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। सम्राट हर्षवर्धन के काल में भी कुंभ पर्व का आयोजन किया जाता था। 643 ई. में सम्राट हर्षवर्धन नै प्रयाग में धार्मिक आयोजन किया। कुछ चीनी यात्रियों के यात्रा वर्णनों से ज्ञात  होता है कि इस लाखों विद्वानों, संत-महात्माओं ने भाग लिया था। कुम्भ के अवसर पर सम्राट हर्ष अपनी समस्त संचित धनराशि, आभूषण व वस्त्र दान दे देते थे। कुछ लोगों का मानना है कि कुंभ का आहेछ अदिगुरु शन्कराचार्य ने नवीं शताब्दी में किया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सन 1735 ई. कुम्भ आयोजन के प्रमाण मिलते है। सन 1398 में तेमूरगंज ने हरिद्वार में जो भयंकर नरसंहार किया, वह घटना कुंभ के अवसर पर घटित हुई थी। 1514 ईस्वी में चैतन्य महाप्रभु ने प्रयाग के कुम्भ में भाग लिया। अतैव कुंभ पर्व आयोजन का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता है।


सत्य-असत्य तथा अमृत-विष के मध्य संघर्ष से उत्पन्न यह पर्व न केवल गूढ़ भारतीय चिंतन-मनन का परिणाम है अपितु यह जीवन व मृत्यु, अच्छाई-बुराई, जय-पराजय संबंधी अनेक अनिवार्यताओं को व्यंजित व पोषित करता है। सत्य की विजय का पर्व मनाते समय जब मनुष्य 'स्व' के बंधनों को भूल जाता है तथा सरिता के निरंतर प्रवाहित जल में भीतर-बाहर के कलुष को विसर्जित कर अमृत तत्व का उदघोष करता है तो 'वसुधैव कुटुम्बकं' की भारतीय विचारधारा का ज्वलंत उदाहरण प्रत्यक्ष उपस्थित हो जाता है।


इन पर्वों से धार्मिक और सांस्कृतिक भावना का प्रचार व प्रसार होता है। विभिन्न प्रांतों के लोग एक स्थल पर उपस्थित होकर मानो राष्ट्रीय एकता, प्रेम, भाईचारे की भावना का उद्घोष करते हैं। यहाँ आकर मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर दान, त्याग, प्रेम, श्रद्धा, सत्संग, सेवा, धर्म आदि बातें सीखता है। मानवता, दया, प्रेम व उदारता का संदेश देने वाले इन पर्वों से जहाँ राष्ट्रीयता की भावना पुष्ट होती है, वहीं देश विभिन्न स्तरों पर एक दूसरे के समीप आता है। अमृत सिद्धांत का पोषक होने क कारण कुंभ का पर्व 'आत्मवत् सर्वभूतेष' के विचार का संदेश प्रसारित करता है।


शिप्रा तट पर बसे उज्जैन नगर में कुंभ पर्व का होना, ज्योतिष के अनुसार शेष तीन स्थानों के कुम्भ पर्व की तुलना में विशेष महत्त्व रखता है। साहित्यिक दृष्टि से भी उज्जैन कालिदास की नगरी होने के कारण वशिष्ट तो है ही पर यह मेला उसके सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व को और भी बढ़ा देता है। प्राचीन काल में इसे अवंतिका के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ विक्रमादित्य जैसे राजा तथा बाणभट्ट जैसे कवि भी हुए। सदापन ऋषि का आश्रम भी उज्जैन की विशिष्टता में चार चाँद लगाता है. स्थान-स्थान पर सुशोभित देवालय इसे निश्चित रूप में देवभूमि कहलाने की श्रेष्ठता प्रदान करते हैं। उज्जैन के कुंभ पर्व के समय यह अनिवार्य है कि गुरु नामक ग्रह सिंह राशि पर अवस्थित हो। यहाँ आयोजित कुम्भ पर्व को 'सिंहस्थ पर्व' के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ आयोजित कुंभ पर्व के लिए 'दस योग' होना नितांत अनिवार्य है। वैशाख मास, शन पक्ष, पूर्णिमा, मेष राशि का सूर्य, सिंह राशि पर गुरु, तुला राशि का चंद्रमा स्वाति नक्षत्र, व्यतीपात योग, सोमवार का दिन तथा उज्जयिनी स्थला। इनमें से एक योग भी न हो तो कुंभ का आयोजन यहाँ नहीं हो सकता। अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय पर्वो की न केवल गुणात्मक मूल्यवत्ता है अपितु उनमें धार्मिक, सामाजिक गहन-गंभीर चिंतन तथा वैज्ञानिक मनन का अद्भुत समावेश है। 


कुम्भ मेले का दश्य अद्भुत उल्लास व उत्साह का संचार करता है। नदी तट पर रंग-बिरंगे तंबुओं की कतारें, विभिन्न शिविरों से विभिन्न पताकाएँ उठाए मार्च करते विभिन्न लोग, सामाजिक जीवन में नैतिकता की मशाल उठाए तथा सदाचार, संयम, परोपकार, कर्मठता व दूरदर्शिता का प्रचार करते विभिन्न मठाधीश ; लाखों लोग-सब कुछ व्यवस्थित यह केवल भारत जैसे देश में ही संभव है क्योंकि यहाँ सदा से नम्रता, परोपकार आदि मानवीय गुणों को सामाजिक जीवन में विशेष स्थान दिया गया है।


इस प्रकार के मेलों की सामाजिक जीवन में विशेष भूमिका है। विज्ञान के विस्तृत भौतिकवाद से बचने के ये अमोघ अस्त्र हैं। निश्चित रूप से इस प्रकार के आयोजन जहाँ धार्मिकता, मानवता, सदाचार की भावना में वृद्धि करते हैं, वहीं दूसरी ओर समस्त राष्ट्र तथा मानव को एक सूत्र में बाँधने के सफल प्रयास हैं।