शहर की आत्मकथा
Shaher ki Aatmakatha


मैं हूँ दिल्ली! भारत की राजधानी दिल्ली।  मेरे रंग, रूप और आकार ने अपने भीतर युगों का इतिहास छिपा रखा है। मेरे खंडहर मेरे इतिहास की गौरव गाथा गाते हैं। मैंने अनेक सम्राटों का उत्थान व पतन देखा है। उन सबकी कटु व मधुर स्मृतियाँ लिए मैं आज भी जीवित हूँ।


आज से सह्त्रों वर्ष पूर्व महाभारत काल में पांडव यहाँ आए। पांडव रजा युधिष्ठिर ने मुझे इंद्रप्रस्थ नाम दिया। उन्होंने यहाँ महल व मंदिरों का निर्माण कराया। मेरे जेहन में बसी अरावली की पर्वत श्रृंखलाएँ साक्षी हैं कि तब मैं उस वैभव संपन्नता को देखकर कितनी प्रसन्न हुई थी।


उसके बाद पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद गौरी आए और उन्हें भी दिल्ली ही भाई। यहाँ तक कि गुलाम वंश के राजाओं ने भी मुझे गौरव प्रदान किया। खिलजी वंश का अधिकार छीनकर यहाँ तुगलकाबाद बसाया गया।  

मुग़ल बादशाहों ने भी मेरे रूप-रंग को संवारा। मैंने राज्य सत्ता की होड़ में जूझनेवाले अनेक सम्राटों को बनते-बिगड़ते देखा। मुगल सम्राट शाहजहाँ ने यहाँ लाल किले का निर्माण कराया। उन दिनों शहर में घुसने के लिए चौदह फाटक थे। शहर के चारों तरफ़ चारदीवार थी। राजपूत राजा सवाई मानसिंह द्वारा निर्मित जंतर-मंतर पर अनेक ज्योतिषी तरह-तरह की गणनाएं किया करते थे। ऐतिहासिक बाजार चाँदनी चौक सदा से ही भीड़ भरा रहा है। लाल किले की दीवारें साक्षी हैं कि उन दिनों भी यहाँ काफ़ी चहल-पहल रहा करती थी।


धीरे-धीरे मुझ पर अंग्रेजों का शासन हो गया। मैं अपने समृद्ध दिनों की याद में धीरे-धीरे सुबकती रही। मेरे गली-मोहल्ले, इमारतें, गुंबद व दरवाजे साक्षी हैं कि देश की आजादी के लिए लड़नेवालों की बलिदानी पर मैंने कितने आँसू बहाए थे. 

अंग्रेजों ने यहाँ अनेक भव्य भवनों का निर्माण करवाया और दिल्ली का नाम दिया। कनॉट प्लेस नामक देखने योग्य बाजार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मेरे रंग रूप में अनेक परिवर्तन आए। भारतीय अपनी सरकार बन जाने के बाद शहर का ढांचा ही बदल गया।


यहाँ जगह-जगह सड़कें, बाग-बगीचे, रहने के लिए घर बनाए जाने लगे. अनेक सरकारी भवनों का निर्माण किया गया। धीरे-धीरे नगर का आकार बढ़ने लगा। मेरी अरावली की पर्वत श्रृंखलाओं को काट-काटकर घर बनाये जाने लगे। कुतुबमीनार जो कभी घने जंगलों के मध्य अकेली खड़ी की थी, आज देर रात तक वाहनों के शोर की शिकायत करती है।


मुझमें व्यापारिक केंद्र बना दिए गए। देश-विदेश के कार्यालयों की स्थापना की गई। मेरे रंग-रूप को निखारा गया। वाहन व्यवस्था में सुधार किए गए। अब तो स्थान-स्थान पर पलाई ओवर बन गए हैं। कहीं-कहीं भीड़ को कम करने के लिए भूमिगत मार्ग भी बन रहे हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक अब मेरी तुलना अपने देशों से करते हैं। अब यहाँ सभी विकसित देशों की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। मेरी प्रसिद्धि आज विश्वभर में फैल गई है। हर वर्ष लाखों पर्यटक मुझे देखने के लिए आते हैं। 


वैसे मेरी शान ही निराली है। जहाँ मुझमें प्राचीनतम ऐतिहासिक भव्यता के दर्शन किए जा सकते हैं, वहीं आधुनिकतम ऊंची-ऊंची इमारते, कारखाने भी उपलब्ध हैं। यहाँ गाँव भी है तथा नगर भी। विभिन्नता में मेरा सवरूप एकता लिए प्राचीनता व नवीनता की अद्भुत मिसाल है।


आजकल लोग मुझे शहर या नगर नहीं महानगर के नाम से पुकारते है। प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग देश के विभिन्न भागों से यहाँ आते हैं तथा यहीं के होकर रह जाते हैं। वर्तमान में मैं विश्वभर के संपन्न नगरों में से एक मानी जाती हूँ। उर्दू शायर जौक ने मेरे बारे में कहा था कि-

कौन जाए ऐ जौक, 

दिल्ली की गलियाँ छोड़कर


सचमुच! जो भी कोई मेरे पास आता है, मेरा ही होकर रह जाता है। स्थान ही ऐसा है। यहाँ हर धर्म, भाषा, जाति, संप्रदाय व प्रांतों के रहते हैं। मुगलकालीन संपन्नता व वैभव के दर्शन अति आधुनिक रूप यहाँ आज भी किए जा सकते हैं। 


मैंने अपने इतिहास में अनेक शूरवीरता के किस्से सँजो रखे हैं। अनेक ऐतिहासिक स्थल आज भी प्राचीन वैभव की गाथा गा रहे हैं। शायद ही, मुझसा प्राचीन शहर आज विश्व के किसी कोने में उपलब्ध हो।


आज बढ़ती जनसंख्या व प्रदूषण से मेरा दम घुटा जाता है। जिस दिल्ली के गीत शायरों ने गाए थे, वह शहर अब यह नहीं है। आज यहाँ व्याप्त है-भागदौड़ और आपाधापी। वैज्ञानिक उन्नति के जितने भयंकर दुष्परिणामों को संसार झेल रहा है, वे सब मुझे प्रतिपल कष्ट पहुँचा रहे हैं।

बढते-बढ़ते में उत्तर प्रदेश व हरियाणा की सीमाओं तक पहुँच गई हैं। दिनभर भीड़ भरी सडकों पर एक दूसरे से टकराते लोग यमुना के तट पर धुआँ उगलती चिमनियाँ तथा सूखी यमुना नदी देखकर मेरा हृदय कॉप उठता है। मन में विचार आता है कि वैज्ञानिक उन्नति की इस भागदौड में जनसमुदाय से आकंठ डूबा यह शहर कहीं विनाश के कगार पर तो नहीं खड़ा? न जाने कैसा होगा मेरा भविष्य!