दहेज-प्रथा की समस्या
Dahej Pratha ki Samasya
'सुबक सुबक कर सुबह बीतें
सुबक सुबक कर बीतें शाम।
कब दहेज को मिलेगी बेड़ी,
कहाँ मिलेगा इसे विराम ?'
न जाने कितनी राधाएँ यमुना की गोद में समा जाती हैं, न जाने कितनी गीताएँ रेल की पटरियों पर सो जाती हैं, न जाने कितनी लक्ष्मियाँ गले में फंदा डाल लटक जाती हैं और न जाने कितनी सीताएँ अग्नि में समा जाती हैं। एक सुसभ्य, सुसंस्कृत और महान परंपराओं वाले देश के माथे पर कलंक है यह दहेज-प्रथा ! संपत्ति पर मात्र पुत्र का अधिकार होने के कारण पुत्री को भी पिता की संपत्ति का न्यायोचित अंश मिल सके, इस सुविचार से जन्म लिया था इस प्रथा ने, लेकिन आज इसका ऐसा भयावह, कुत्सित रूप देखने को मिलता है कि रूह काँप उठती है। कैसी-कैसी शारीरिक, मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है मासमों को, यह हम और आप रोज़ ख़बरों की सुर्खियों में पढ़ते-सुनते रहते हैं। एक सुप्रथा कुप्रथा में कैसे परिवर्तित हुई, इसे बिना जाने इसका निदान संभव नहीं। कडे कानून, महिला संगठनों के धरने-नारे विशेष कारगर सिद्ध नहीं हो रहे क्योंकि इसकी जड़ में ह-मानवीय-मूल्यों का विघटन। जब समाज में मानवीय मूल्यों से अधिक भौतिक संपन्नता का वर्चस्व होगा तब ऐसा ही होगा। तब सात जन्मों का पवित्र बंधन, अग्नि को साक्षी मानकर दिए वचन, सब बेमानी हो जाते हैं। कन्या-भ्रूण-हत्या, अनमेल-विवाह का भी सीधा संबंध दहेज प्रथा से ही है। इस क्रूर, अमानवीय प्रथा का अंत तब संभव है, जब परिवारों में लड़कियों को लड़कों के समान दर्जा दिया जाए। उन्हें सशिक्षित, प्रशिक्षित कर, सक्षम और आत्मनिर्भर बनाया जाए। विदाई के समय माता-पिता का आश्वासन उसके साथ जाए कि बेटी! त जा, किंतु इस घर के द्वार तेरे लिए सदा खुले हैं।' युवकों के हृदयों में भी महात्मा ईसा का यह वाक्य अंकित करना होगा--'सारी दुनिया को पाकर भी तू क्या करेगा यदि उसे पाने में तू अपनी अंतरात्मा ही गवाँ बैठे।‘
'प्राचीन हों कि नवीन; छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।'
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