जब आवत संतोष धन
Jab Awat Santosh Dhan
अथवा
संतोष का महत्त्व
Santosh ka Mahatva
मानव जीवन अनन्त सागर के समान है जिसमें असंख्य
लहरें उठती-गिरती रहती हैं। इस जीवन में धैर्य तथा संतोष का अत्यंत महत्त्वपूर्ण
स्थान है। किंचित गुणों के कारण ही कोई भी मनुष्य अन्यों से अधिक उपलब्धि कर पाता
है तथा संतोष इन गुणों में सर्वोपरि है। इसीलिए संतों ने कहा है कि जब कोई व्यक्ति
जीवन के सारतत्व को समझ जाता है तथा जीवन में संतोष व धैर्य को अपना लेता है तो
उसके समक्ष सभी भौतिक सुख व पदार्थ धूल के समान हो जाते हैं।
संतोष मनुष्य को मानवीयता की चरम सीमा तक ले
जाता है। संतोषी व्यक्ति जीवन की आपा-धापी में अन्यों से कोई होड़ स्थापित नहीं
करता। आज के आर्थिक युग में भ्रष्टाचार, तस्करी,
चोरी, मिलावट, आतंकवाद
जैसे असंख्य दोष मानव की अति लोलुपता के परिणामवश पनप रहे हैं। यदि मानव अपने
उपलब्ध साधनों में संतोष प्राप्त कर ले तो इन कुमागा की ओर प्रेरित नहीं होगा।
किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज
व देश की सुख-शांति के लिए, संतोष का होना नितांत आवश्यक है। भारतीय
विचारधारा में संतोष की यत्र-तत्र व्याख्या की गई है। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत
में कर्म की ओर तत्पर होने तथा फल की चिंता न करने का संदेश दिया है। ऐसा संतोष के
माध्यम से ही संभव है। ऐसा करने पर मनुष्य स्व से परे की ओर प्रेरित होकर सत्कर्म
करने को लालायित हो उठता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने इस गूढ़ रहस्य को समझा
तथा कहा-
'संतोष एवं पुरुषस्य
परं निधानं।'
भारत में सदा से पारिवारिक जीवन को महत्त्व
दिया गया। संसार की कति व शांति के लिए वेदों की ऋचाएं रची गई तथा इसी कारण से
संतोष को महाशान्ति तथा महासुखा का कोष कहा गया है। संस्कृत साहित्य में। संतोष, धैर्य
जैसे गुणों की चर्चा कालिदास, शूद्रक जैसे महारचनाकारों तथा भतृहरि, विदुर, चाणक्य
जैसे महाऋषियों तथा कूटनीतिज्ञों ने की है इसी लिए
कहा गया है-
दानेनतुल्यो निधिरस्ति नान्यः
संतोष तुल्यं सुखं किं वा।
प्रकृति का प्रत्येक कण मानव को संतोष की ओर
प्रेरित करता है। आकाश से काले बादल भरपूर वर्षा करते हैं। पेड़-पौधे उतना ही जल
पीते हैं जितना उनके लिए अनिवार्य है। पशु-पक्षियों को ही लीजिए। सिंह शिकार कर
भरपेट खाता है तथा शेष को निर्विकार भाव से त्याग देता है। तथा उसे अन्य पशु-पक्षी, कीट-पतंग
ग्रहण करते हैं। कोई भी पशु किसी प्रकार के भोजन का संग्रह नहीं करता। प्रकृति के
सभी पदार्थ सतत उपलब्ध रहते हैं, उनका संचय अनिवार्य नहीं। हमें जीने के लिए
श्वास लेना पड़ता है तो क्या हम वायु का संचय करते हैं। यह तो मनुष्य का असंतोष है
जो उसे संचय करने की ओर प्रेरित करता है। यह उसकी असुरक्षा तथा दैवी शक्ति के
प्रति अनास्था का भी द्योतक है। मानव सदा भूत या भविष्य में जीना चाहता है।
वर्तमान में कार्य कर वह संतोषपूर्ण जीवनयापन करने से समस्त विश्व शांति व कल्याण
की राह पर अग्रसर हो सकता है।
संकट काल में धैर्य व संतोष ही मनुष्य को राह
दिखाते हैं। पांडवों न राजसी सुखों का त्यागकर धैर्यपूर्वक वन के कष्टों को सहा
तथा अंत म पापाचारी कौरवों पर विजय प्राप्त की। विभीषण ने रावण की कुनीतियों उसका
साथ नहीं दिया तथा राजसी सुखों का त्याग किया तथा अंत में राज्यभिषेक
के अधिकारी बने। कहा भी गया है कि संतोष व सत्र का फल मीठा होता है। कविवर वृंद
कहते हैं-
कारज धीरे होतु हैं काहे होत अधीर।
समय पाय तरुवर फलैं केतक सींचौं नीर॥
भक्तिकाल के सभी संत कवियों ने संतोष व धैर्य
की महिमा गाई है। कवि कहते हैं-
साई इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए॥
संतोष मानव जीवन में मानसिक शांति का ऐसा स्रोत
बनता है जो सदैव अमृतधारा बरसाता रहता है। संतोष मानव को अधीरता व दुखों से बचाता
है। यह अद्भुत दुर्लभ गुण है। 'संतोषी नर सदा सुखी' ऐसा
इसलिए। प्रचलित हुआ होगा क्योंकि यह मनुष्य को अनन्त इच्छाओं के पीछे भागने नहीं
देता तथा मरुभूमि की मृगमरीचिका का अंत कभी भी सुखद नहीं होता। असंतोषी अथाह सुख
संपत्ति के बीच भी सदैव कुछ और पाने को आतुर रहता है तथा उपलब्ध सुखों को भी भोग
नहीं पाता। यही कारण है कि संसारभर की समस्त समृद्धियों को विद्वानों ने संतोषधन
के सम्मुख तुच्छ आँका है।
संतोषी होने का अभिप्राय यहाँ कर्महीन होना
कदापि नहीं है। संतोष मनुष्य की प्रगति में बाधक नहीं साधक है। कुछ विद्वानों ने
संतोष की व्याख्या करते हुए इसे अकर्मण्यता का पर्याय कहा है। कवि कहता है-
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
इसका अभिप्राय यह नहीं कि पंछी अपने जीवन यापन
के लिए कोई कर्म नहीं करता। हर कीट पतंग, पशु-पक्षी दिनभर अपनी क्रियाओं में लीन रहते
हैं। मानव को भी अपने जीवन में कुछ प्राप्त करने के लिए कर्मरत रहना आवश्यक है।
संतोष का अभिप्राय यह नहीं कि आप दूसरों पर बोझ बन जाएँ। हाथ पर हाथ रखे बैठे
मनुष्य को आलसी कहा जा सकता है, संतोषी नहीं।
संतोष तो वह मानसिक सुख है जो दिनभर के परिश्रम
के पश्चात किसी श्रमिक को अपनी रोटी खाने में प्राप्त होता है। यह वह सुख की
वैज्ञानिक को किसी अनुसंधान के बाद, किसी कलाकार को बाद किसी शिक्षक को अध्यापन के
बाद तथा किसी चितंक को सामाजिक चेतना प्रदान करने के पश्चात प्राप्त होता है।
कर्म से प्राप्त आत्मिक
शांति ही संतोष का पर्याय है। जितना
अपने प्रयासों से उपलब्ध हो उसे पाकर मानसिक रूप से शांत व प्रसन्न होना तथा
आगे और पाने के लिए प्रयास करने के तत्पर रहना आदर्श स्थिति है। कर्मवीर ही
सन्तुष्ट सकते हैं। संतोष रूपी धन वार कर्मवान परिश्रमी पुरुषों का गहना है।
संतोष अनेक गुणों का जन्मदाता है। संतोषी जीव
दयावान, परोपकारी होता है। वह समय आने पर अपने परिवार, समाज
व देश के लिए त्याग करने को आतुर रहता है। लंगोटी धारण कर देश की स्वतंत्रता के
लिए संघर्ष करनेवाले महात्मा गांधी निजी सुखों व अथाह धन संपत्ति को परोपकार हेतु
न्योछावर करनेवाले बाबा आमटे जैसे महापुरुष संतोषी रहे। ऐसे महापुरुष देश, जाति
व मानवता के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर सारे विश्व के सम्मुख श्रेष्ठ उदाहरण बन
गए।
असंभव को सभंव बनाना, त्याग
में भी सुख अनुभव करना, परहित में भी स्वार्थ प्रतीत होना, तृष्णा
व कामनाओं का त्याग कर कर्म के प्रति निष्ठा रखनेवाले संतोष के साक्षात स्वरूप
कहलाते हैं। संतोष निस्वार्थ कर्म का पर्याय है अकर्मण्यता का नहीं। अकर्मण्यता
मानसिक असन्तोष आपसी कलह व विद्वेष को जन्म देती है। यथा 'अशान्तस्य
कुतः सुखम्'। मानसिक शांति, सामाजिक कीर्ति, धार्मिक
प्रगति प्रदान करनेवाली संतोष की प्रवृत्ति निश्चित रूप से संसार की
सर्वश्रेष्ठ व अतुलनीय संपत्ति है।
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