जब मैं दौड़ में हार गया 

Jab mein Daud me Haar Gaya

 

हमारे विद्यालय में प्रतिवर्ष खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता। है। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी सोलह वर्ष तक के आयु वर्ग में से प्रथम आनेवाले छात्र को राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं के लिए भेजे जाने का प्रस्ताव था।

 

प्रतियोगिता में अभी एक माह बाकी था। मुझे बार-बार लगता था कि सतत अभ्यास से में अवश्य सफलता प्राप्त कर लूँगा। मन में बार-बार विचार आते कि एक कर्मवीर मानव संसार और समाज की विभिन्न विषमताओं से संघर्ष करता हुआ सफलता व लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। कहा भी गया है कि 'कार्य वा साध्येयं देहं व पातयेयम' अर्थात कार्य की सिद्धि किसी भी प्रकार से करूँगा। 'करो या मरो' का नारा मेरे मन में बार-बार गूंजता रहा। मैं रोज़ सुबह उठकर व्यायाम तथा दौड़ का अभ्यास करने लगा।

 

विद्यालय में हम सब मित्र दौड़ लगाते। मैं सबसे आगे रहता। मेरे मन की आशा और बलवती होती जाती। आशा के सहारे मानव ने बड़ेबड़े काम किए हैं, यही आशा मुझे कठिन परिश्रम व अभ्यास के लिए प्रेरित करती रहती तथा मैं दिन-रात दौड़ प्रतियोगिता में प्रथम आने के लिए। जुटा रहता। नियमित अभ्यास तथा घड़ी की सूई की नोक पर की जाने वाली अभ्यास परीक्षाओं के परिणाम में दिन-प्रतिदिन सुधार होने लगा। मैं रोज़ पहले दिन से कहीं बेहतर प्रदर्शन करता।

घोर तपस्या व मानसिक बल का संबल लिए एक दिन शाम को मैं । उद्यान में दौड़ रहा था। घड़ी की ओर देखते-देखते मेरा ध्यान न जाने । कब चूक गया, मैं किसी चीज़ से टकराकर धड़ाम से गिरा। कुछ क्षण तक होश ही न रहा कि मैं कहाँ हूँ। फिर आँखें खुली तो कई लोग आसपास खड़े थे। बड़ी कठिनाई से सहारा लेकर मैं खड़ा हुआ पर पैर सीधा रखते ही चीख निकली। मन निराशा से भर गया। अरे! यह क्या हुआ? अब मेरी दौड़ का क्या होगा? जीत का मेरा वह सुनहरा स्वप्न भंग होता दिखाई पड़ा।

 

मुझे चिकित्सक के यहाँ ले जाया गया। जब चिकित्सक ने बताया कि पैर पर मोच आ गई है तो मन में उम्मीद की किरण जागी। खेल तियोगिता में अभी दस दिन शेष थे। रोज की दवा व हल्के-फुल्के व्यायाम के बाद पाँव हिलने लगा। अब चार दिन शेष थे। मैंने सावधानी से भागना शुरू किया। आरंभ में भय के कारण भागा नहीं जा रहा था परंत। फिर भी उम्मीद थी कि मेरा अभ्यास अवश्य रंग लाएगा।

 

प्रतियोगिता का दिन आ गया। हम सब बच्चे खेल के मैदान में खड़े थे। सीटी बजी और सब दौड़े। आरंभ में मैंने बड़ी फुर्ती से काफ़ी आगे निकलने में सफलता प्राप्त की किंतु दौड़ के अंतिम क्षणों में पैरों में जान ही न रही। दर्द के कारण मुँह से कराह निकलने लगी। सारा शरीर पसीना-पसीना हो गया। एक-एक करके मेरे साथी आगे निकलते गए। मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया।

 

आँख खुली तो मैं अपने अध्यापकों से घिरा हुआ था। मैं समझ गया। कि मैं हार गया था। मन घोर निराशा से भर उठा कि वह सुंदूर स्वप्न जिसकी मैंने कल्पना की थी. मेरी ही आँखों के सामने भंग हो गया और मुझे पता भी न चला। इस हार ने कुछ क्षणों के लिए मुझे घोर निराशा में धकेल दिया। मझे लगा कि मैं सब कुछ हार गया हूँ पर तभी संस्कृत अध्यापक का समझाया श्लोक मन में आया-

छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्यपचीयते पुनश्चन्द्रः,

इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न ते विपदा।

 

मुझे लगा जब कटे हए वृक्ष फिर से हरे-भरे हो उठते हैं, क्षीण हुआ पद्रमा फिर से श्रीयुक्त हो जाता है तो मैं फिर से क्यों नहीं जीत सकता? यह सोचते ही यह हार मझे केवल तन की हार जान पड़ी। आभास हुआ मानसिक शक्ति व प्रयास के बल पर मैं आज नहीं तो कल अवश्य अपना लक्ष्य प्राप्त कर पाऊँगा। यह पराजय एक पाठ है जो आगे चल मेरी विजय का मार्ग प्रशस्त करेगी।

 

मुझे अनुभव होने लगा कि यदि विघ्न हमारे मानसिक बल को छीन लें तो निश्चित रूप से हम अत्यंत दुर्बल हैं परंतु मुझे यह स्वीकार नहीं था। मुझे अब विश्वास हो गया था कि मैं अपने प्रयास व मानसिक शक्ति के बल पर सभी सतर्कताएँ बरतता हुआ एक दिन अवश्य विजयी होऊँगा। उसी दिन से मैं आगामी प्रतियोगिता की तैयारी में जुट गया।