जीवन-मरण विधि हाथ
Jeevan-Maran Vidhi Haath


निबंध नंबर:-01 

भारतीय आध्यात्मिक विचारधारा के अनुसार जीवात्मा को परम सत्ता का अंश मात्र माना गया है। 'परबस जीव स्ववस भगवन्ता' अर्थात जीव परबस है तथा इस जगत का प्रत्येक कार्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही होता है।


इस संसार में लाभ-हानि, यश-अपयश, हित-अहित-ये सब मनुष्य की सीमा से परे होने वाले निर्णय हैं। कब जन्म होगा और कय मृत्यु, ये सब ईश्वर के हाथ में हैं। सब साधन होते हुए भी मनुष्य विधाता के हाथ की कठपुतली है। इतना ही नहीं, मनुष्य के सब कर्म ईश्वर की प्रेरणा से ही संपन्न होते हैं। उस विधाता की इच्छा के प्रतिकूल इस संसार में पत्ता भी नहीं हिलता। तभी किसी कवि ने कहा है-


तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगलमूल,

पत्ता तक हिलता नहीं खिलता कहीं न फूल। 


भाग्य पर भरोसा करनेवालों की विश्वस्त धारणा है कि कर्म की गति टालने से भी नहीं टलती। जो कुछ नियति में है, वह होकर ही रहता है। गुरु वशिष्ठ जैसे ज्ञानी ने राम जैसे अवतारी के राजतिलक का शुभ अवसर निकाला परंतु विधि की विडंबना कि राम को वनवास जाना पड़ा। सीता व लक्ष्मण को भी वन के संकट सहन करने पड़े। भाग्य के आगे राजा व रंक सब बराबर हैं।  

सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र जैसे व्यक्ति को भी चौराहे पर खड़े होकर अपनी पत्नी को नीलाम करना पड़ा। जो कुछ इनसान के भाग्य में लिखा होता है, वह उसे भोगना ही पड़ता है। भाग्यवादिता के सिद्धांत को सर्वोपरि माननेवाले लोगों की अटल धारणा है कि यदि ईश्वर साथ दे तो संसार की बड़ी से बड़ी शक्तियाँ भी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकी। पौराणिक कथाओं में इसे सिद्ध कर के लिए अनेक प्रसंग मिलते हैं। प्रहलाद को लाख मारने के प्रयत्न कि गए परंतु जलना होलिका को ही पड़ा। कंस का वध कृष्ण के हाथों ही होना था सो कृष्ण जन्म के तुरंत बाद ऐसी लीलाएँ हुईं कि कृष्ण नट के यहाँ पहुँच गए।


संसार में ऐसे असंख्य उदाहरण मिलते हैं जब मनुष्य को विधि है। हाथों कठपुतली बनते देखा गया है। कभी तो पहाड़ की चोटी से गिरने पर बाल भी बांका नहीं होता तो कभी बैठे-बैठे मौत आ जाती है। इतने बड़े ब्रह्मांड की नियंता कोई परम शक्ति अवश्य है जिसके आदेश से प्रकृति चक्र चलता रहता है। इसलिए गीता में भी कहा गया है कि के मनुष्य, तू कर्म कर, फल की चिंता मत कर. कवि हृदय भी इससे प्रभावित होकर पुकार उठता है-कर्म मात्र का तू अधिकारी, फल का नहीं अधिकार तुझे। 


भाग्यवादिता की बातें युगों से संसारभर में गूंज रही हैं परंतु आज के वैज्ञानिक युग में केवल भाग्य के भरोसे बैठकर मनुष्य को निष्क्रिय होने की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। आज मनुष्य ने नक्षत्रों की दूरी नाप अंतरिक्ष पर यात्रा कर ली है। पृथ्वी लोक की तो बात ही क्या, पाताल तक को छान डाला है और मंगल की यात्रा के स्वप्न सँजोए जा रहे हैं। जब मनुष्य ने प्रकृति के सभी अंगों की गतिविधियों को इतना समझ-परख लिया है तब हम उसको इतना असहाय नहीं मान सकते।


यह सच है कि मनुष्य विधि का विधान परिवर्तित नहीं कर सकता। परंतु निष्क्रिय हो जाने तथा सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ देने से तो संसार गतिहीन हो जाएगा और अकर्मण्यता उसे अवनति की गर्त में धकेल देगी। आज जिस वैज्ञानिक उन्नति से मनुष्य का जीवन स्तर ऊँचा हुआ है और उसने शरीर विज्ञान व चिकित्सा के क्षेत्र में जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उसे कैसे नकारा जा सकता है। यदि मनुष्य केवल भाग्य के भरोसे बैठा होता तो आज असाध्य रोगों के इलाज न होते, आज नकली दिल मनुष्य के सीने में न धड़कता, लूले-लँगड़े मनुष्य आराम से चल-फिर नहीं पाते।


गीता भी मनुष्य को कर्मरत रहने का संदेश देती है। अपनी निष्क्रियता से होने वाली हानियों का दोषारोपण हम देवता, विधि या भाग्य पर नहीं कर सकते। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसे वैसे ही फल मिलते हैं।  

महात्मा गांधी ने अभूतपूर्व त्याग किए और राष्ट्रपिता कहलाए। बाबा आमटे ने अपने सभी भौतिक सुखों को त्याग कर कुष्ठ रोगियों की आजीवन सेवा की, तभी आज संसार ने उनको इतना सम्मान दिया है। व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसी के अनुरूप ही परिणाम निकलता है।


अपनी असफलताओं को हम भाग्यवादिता की आड़ में छिपाते है की में विश्वास रखनेवालों का मत है कि देव-देव तो आलसी लोग पुकारते हैं। बदधिमान तो अपने अच्छे कार्यों से स्वयं को तथा समाज को एक समृद्धि प्रदान करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि कर्महीन  आलसी लोग सदा अपने किए पर पछताते हैं तथा काल, कर्म और ईश्वर पर दोष लगाते रहते हैं। संसार में जिसे भी धन-यश और मान प्राप्त हुआ है, उसने उसके लिए भरपूर प्रयत्न किए हैं। विज्ञान की धारणा है कि हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है इसलिए जो जैसे कर्म करता है, उसे ही फल मिलते हैं। इसमें भाग्य का क्या दोष?


जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। इस संसार में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। अनेक महापुरुषों ने साधारण गरीब परिवारों में जन्म लिया परंतु अपनी प्रतिभा व कर्म के बल पर भाग्य को ही बदल दिया। अब्राहिम लिंकन और लाल बहादुर शास्त्री का जीवन इसके सुंदर उदाहरण हैं। कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने कर्मों से अपना भाग्य स्वयं बताता और बिगाड़ता है।



हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश सब विधि हाथ

Labh-Hani Jeevan Maran Yash Apyash sab Vidhi Haath

निबंध नंबर:-02 

इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है, उस सब के पीछे विधि का प्रबल हाथ है। मनुष्य के भविष्य के विषय में बड़े-बड़े ज्योतिषी भी सही अनुमान नहीं लगा सकते। भाग्य रूपी क्रिया-कलाप बड़े विचित्र हैं। विधि के विधान पर भले कोई रीझे अथवा शोक मनाए पर होनी होकर और अपना प्रभाव दिखा कर रहती है। मनुष्य तो विधि के हाथ का खिलौना मात्र है। हमारे भक्त कलाकारों ने विधि को प्रबल शक्ति के आगे नत-मस्तक होकर जीवन की प्रत्येक स्थिति पर संतोष प्रकट करने की प्रेरणा दी है। उक्त उक्ति जीवन संबंधी गहन अनुभव का निष्कर्ष है जो व्यक्ति जीवन के सुखद एवं दुःखद अनुभवों का भोक्ता बन चुका है, वह बिना किसी तर्क के इस उक्ति का समर्थन करेगा-

हानि-लाभ जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ 

मनुष्य सोचता कुछ है पर विधाता और भाग्य को कुछ और ही स्वीकार होता है। मनुष्य लाभ के लिए काम करता है, दिन-रात परिश्रम करता है, वह काम की सिद्धि के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है, लेकिन परिणाम उसकी आशा के सर्वथा विपरीत भी हो सकता है। मनुष्य जीने की लालसा में न जाने क्या-क्या करता है पर जब मौत अनायास ही अपने दल-बल के साथ आक्रमण करती है तो सब कुछ धरे का धरा रह जाता है। मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए सर्वस्व अर्पित कर देता है पर उसे मिलती है बदनामी और निराशा। इतिहास में असंख्य उदाहरण हैं जो उक्त कथन के साक्षी रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। राम, कृष्ण, जगत्-जननी सीता एवं सत्य के उपासक राजा हरिश्चंद्र तक विधि की विडंबना से नहीं बच सके। तब सामान्य मनुष्य की बात ही क्या है? वह व्यर्थ में ही अपनी शक्ति एवं साधनों की डींग हांकता है। उक्ति में यह संदेश निहित है कि मनुष्य को अपने जीवन में आने वाली प्रत्येक आपदा का सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। कबीर जी ने भी कहा है-

करम गति टारे नहीं टरे।