मेरा प्रिय कवि: कबीर
Mera Priya Kavi : Kabir


भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत कवियों में कबीर का नाम प्रमुख है। कबीर मूलत: भक्त थे परंतु उनकी भक्ति भी समष्टिपरक थी। उसमें अंत:संघर्ष के साथ लोकसंघर्ष का भी समावेश था। यही कारण है कि वे न केवल एक कवि थे अपितु लोक सुधारक, भक्त, कवि तथा उत्कृष्ट युग नेता भी थे। युग की समस्याओं का विश्लेषण कर समाज को नई दिशा दिखानेवाले कबीर मेरे प्रिय कवि हैं।


कबीर के जन्म स्थान व काल के विषय में विद्वानों में काफ़ी मतभेद हैं। कबीर चरित्र बोध में 1455 वि. ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार उनकी जन्म तिथि स्वीकार की गई है-


चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रावार एक ठाठ ठए

जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी प्रगट भए।


उनके जन्म के विषय में भी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ का मानना है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने लोकलाजवश इन्हें काशी के लहरतारा नामक तालाब के निकट फेंक दिया था। उनका पालन-पोषण नि:संतान जुलाहा दंपत्ति नीरू और नीमा ने किया।


कबीर पंथी कहते हैं कि अमावस्या की रात्रि को जब नभ में बादल घिरे हुए थे, बिजली कौंध रही थी, उस समय लहरतारा नामक तालाब में एक कमल प्रकट हुआ और फिर वह प्रकाश में परिवर्तित हुआ। उस ज्योति से ही कबीर उत्पन्न हुए। इस कथा के सत्य होने के प्रमाण नहीं मिलते किंतु यह सत्य है कि उनका जन्म लगभग संवत् 1455 में काशी में हुआ। उनकी व्यावहारिक शिक्षा-दीक्षा भी नहीं हुई। उन्होंने स्वयं लिखा है-


मसि कागद छुओ नहि कलम गहि नहीं हाथ। 


बचपन से ही कबीर को साधु-संतों और फ़कीरों में रुचि थी। उनका पत्नी का नाम लोई था परंतु इस विषय में भी अनेक विवाद हैं। आगे चलकर कबीर स्वामी रामानंद के शिष्य बने। उन्होंने स्वयं लिखा, "काशी में हम प्रगट भये रामानन्द चेताये।" 


कबीर एक फक्कड़ फ़कीर तथा विद्रोही स्वभाव के विलक्षण प्रतिभासंपन्न थे। वे अत्यंत निर्भीक, सत्यवादी, संतोषी तथा आडंबर-विरोधी समाज सुधारक थे। वे सिकंदर लोदी के सामने नतमस्तक नहीं हुए। हिंदू तथा मुसलमानों के वैमनस्य ने उन्हें किंचित भी विचलित नहीं किया। उन्होंने समस्त उत्तर भारत में अपनी निर्भीक वाणी द्वारा झूठ, पाखंड, कर्मकांड, हिंसा आदि का विरोध किया। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-वे सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ़, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय थे। युगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग प्रवर्तक की दृढ़ता उनमें विद्यमान थी, इसीलिए वे युग प्रवर्तन कर सके।


कबीर निराकारवादी कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में 'राम' शब्द का प्रयोग किया किंतु उनका राम ब्रहम का प्रतीक है। वे एकेश्वरवादी थे। उनके द्वारा प्रतिपादित ईश्वर व्यापक है तथा समस्त संसार में व्याप्त है। पूजा-पाठ में उन्होंने ऊँच-नीच, जात-पात को नहीं माना। 

वे लिखते हैं-


जाति पांति पूछे नहि कोई,  हरि को भजे सो हरि का होई। 


कबीर के समय में मुसलिम शासन तलवार के बल पर धर्म प्रचार में सपा तथा दूसरा आर उच्चस्थ पदासीन हिंदू इसका जी-जान से विरोध रहे थे। समाज में ब्रह्मवादी, कर्मकांडी, शैव, वैष्णव आदि अनेक मत प्रचलित थे। कबीर ने सभी धर्मों के कर्मकांडों का विरोध किया। उन्होंने जातिगत, धर्मगत, विश्वासगत रूढ़ियों और परंपराओं के खिलाफ़ खुलकर आवाज उठाई। एक ओर जहाँ मूर्तिपूजकों के खिलाफ़ उन्होंने लिखा-


पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूं पहार 

तातें या चाकी भली पीस खाए संसार


वही दूसरी ओर, मुसलिम कट्टरवादियों का उपहास करते हुए कहा-


काँकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई चिनाय,

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दै, क्या बहिरा हुआ खुदाय। 


कबीर के काव्य में अलौकिक प्रेम का मार्मिक वर्णन है। वे एक सिदद्ध रहस्यवादी कवि थे। उनके काव्य में रहस्यमय अनुभूतियाँ, विरह को व्याकुलता, आत्मसमर्पण की उत्कंठा तथा दर्शन की अभिलाषा यत्र-तत्र छलकती है। वे लिखते हैं-


चकवी बिछुरी रैन की आई मिली परभाति। 

जो जन बिछुरै राम से ते दिन मिलै न राति॥


 * * * *


आँखड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड़ा राम पुकारि पुकारि।। 


कबीर न केवल भगत अपितु उग्र साधक थे। उनके समस्त साहित्य में हठयोग का प्रभाव दिखाई देता है। जहाँ एक ओर नाथ संप्रदाय का प्रभाव है वहीं दूसरी ओर शंकर का अद्वैतवाद भी झलकता है-


जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी।

फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत कहौ ग्यानी। 


कबीर के काव्य की सामाजिक दृष्टि से जितनी उपयोगिता तत्कालीन समाज को थी, आज भी उनकी रचनाएँ समय-सापेक्ष हैं। आज भी जनमानस को दिशाबोध करने में उनकी विशेष भूमिका है। वे गुरु की महिमा का गान करते हुए लिखते हैं-


गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाँय।।

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाय॥ 


कबीर के काव्य में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। उन्होंने अधिकतर साखी, चौपाई, दोहे आदि में काव्य सृजन किया। काव्यगत उत्कृषाता के साथ लोक संग्रह की भावना ने उन्हें भक्ति आंदोलन का उन्नायक व विशिष्ट समाज सुधारक बना दिया। यही कारण है कि आलोचक कबीर को अपने युग का गांधी कहते हैं। कबीर का हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। यही कारण है मेरे प्रिय कवि है तथा उनकी रचना 'बीजक' मेरा प्रिय ग्रंथ है।