परिश्रम ही सफलता की कुंजी है 

Parishram hi Safalta ki Kunji Hai





रॉबर्ट कोलियार ने कहा था-'मनुष्य की सर्वोत्तुम मित्र हैं उसकी दस उँगलियाँ।' और जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा-

'सकल पदारथ हैं जग माहिं, कर्महीन नर पावत नाहिं।' 

सफलता की हर कहानी कठोर परिश्रम के पसीने से लिखी गई है। पत्थर-यग से आज के अंतरिक्ष-युग तक सभ्यता का विकास अगणित पुरुषार्थियों के परिश्रम का ही परिणाम है। उन्होंने ही अन्न उपजाया, वस्त्र बनाए, भवन, पुल, सड़क, बांध बनाए, नई-नई खोजें, नए-नए आविष्कार किए। यदि एक प्रयत्न में असफल हो जाने पर एडीसन प्रयत्न करना छोड़ देता, तो क्या हमारे जीवन में विद्युत की यह जगमग होती? यदि लाखों देशभक्तों ने स्वेद-रक्त न बहाया होता और भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठ गए होते तो क्या हमें कभी स्वतंत्रता का सुख प्राप्त हो सकता था ? परिश्रम के बिना सफलता के उच्च शिखरों को छू सकना संभव नहीं। संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति है-'न हि सप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मखे मगाः' अर्थात् सिंह जैसे शक्तिशाली जानवर को भी शिकार करके ही पेट भरना होता है-सोते हुए सिंह के मख में हिरन स्वयं प्रवेश नहीं करता। "दैव-दैव" की पुकार तो आलसी करते हैं और जीवन-भर कुछ नहीं कर पाते। उद्यमी व्यक्ति अपने श्रम से निरंतर सफलता के नए-नए शिखरों को चूमता आगे बढ़ता जाता है।

'प्रकृति नहीं डर कर झुकती है, कभी भाग्य के बल से, 

सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से, श्रम-जल से।'