परोपकार ही परम धर्म है 
Propkar hi Param Dharam Hai

'परहित सरिस धरम नहिं भाई' तुलसीदास जी के इन वचनों में ही कर्म का मर्म है, जीवन का सार है। परोपकार ही संपूर्ण सृष्टि की संचालक शक्ति है-

'सर्जित होते मेघ विसर्जित, कण-कण पर हो जाने

सरिता कभी नहीं बहती है, अपनी प्यास बुझाने।' 

परोपकार की भावना ही मानव को पशु से ऊपर उठाकर देवत्व की ऊँचाई को छू सकने का संबल बनती है-

'वही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।' 

किसी के अश्रुपूरित नेत्र देखकर जिसका हृदय विचलित न होता हो, किसी को संकट में देख जिसके कदम न उठते हों, किसी को गिरता देख जिसकी भुजाएँ उसे उठाने को न फड़क उठती हों-ऐसे व्यक्ति का शरीर भले ही मनुष्य का हो, मूलत: वह होता पशु ही है। दूसरों को भूखा देखकर भी जो छप्पन भोग खा सके, पड़ोस में आग लगी देख जो अपना सामान समेटने में लग जाता हो, बीमार और बूढ़ों की सेवा के लिए जिसके पास कभी समय ही न हो, धन होते हुए भी निर्धन की सहायता के लिए जो एक कौड़ी भी न दे सकता हो वह साँस भले ही लेता हो, वह है मृतक समान ही। यह प्रमाणित सत्य है कि व्यक्ति जितना अधिक स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होता है, वह उतना ही दुखी और तनावग्रस्त रहता है। जितना ही वह उदार और परोपकारी होता है, उतना ही प्रसन्न और स्वस्थ रहता है। यह प्रकृति का नियम है, संदेश है-आत्मा विस्तार चाहती है, संकुचन नहीं।

'कभी भी वक्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया, 

जिन्होंने दुखियों के आँसू से दिल्लगी की है। 

किसी के ज़ख्म को मरहम दिया है, गर तूने, 

समझ ले तूने खुदा की बंदगी की है।'