परोपकार
Paropkar
"अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्,
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्"
Essay # 1
अठारह पुराणों की सृष्टि करनेवाले व्यास जी ने
उनका सार दो शब्दों में कह दिया कि पुण्य के लिए परोपकार किया जाता है तथा पाप के
लिए। परपीड़न। परोपकार एक महान भावना है। परोपकार का अर्थ है-निस्वार्थ। भाव से दूसरों का उपकार करना। अपने हित की
चिंता न करते हुए जाब व्यक्ति दूसरों की भलाई के लिए कार्य करता है, वही
सच्चे अर्थों में परोपकार है।
सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे मानव में
मानवोचित गुणों का विकास होने लगा। वह स्व की सीमा से बाहर निकलकर दूसरों के विषय
में सोचने लगा। सुख-शांति व कल्याण की भावना से उसमें अनेक दिव्य गुण जन्म लेने
लगे तथा इसी प्रकार धर्म की स्थापना हुई। मनुष्य को स्नान में रहने, उसकी
सुख-शांति व उन्नति के लिए कुछ मूलभूत गुणों को आवश्यकता हुई।
स्व
की भावना से निकलकर परहित की कल्पना ही
उत्कृष्ट मानवता इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमई।
परोपकार की भावना तथा प्रेरणा मनुष्य को
प्रकृति से मिलती है। परोपकार के लिए नदिया निरतर बहती हैं, वृक्ष
फल देते रहते हैं। प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ मानव के हित में निरंतर लगा रहता
है। परोपकार तथा हित-अनहित का ध्यान पशु-पक्षियों को भी होता है तो मनुष्य तो
सभ्य। जीव है। जब जटायु जेसा पक्षा परोपकार के लिए अपने प्राणों की बलि दे सकता है
तो मानव परोपकार कर अपना जीवन सफल क्यों नहीं बनाता? कबीर जैसे संत
ने भी कहा है-
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥
भारतीय संस्कृति में मनुष्य को 'बहुजनहिताय' और
'बहुजन सुखाय' जीवन जीने की सीख दी गई है। परोपकार से दूसरे
व्यक्ति का तो भला होता है किंतु स्वयं को भी आत्मिक शांति मिलती है, हृदय
निर्मल हो जाता है। परोपकार का प्रभाव द्विपक्षीय होता है। परोपकारी को सात्विक
आनंद प्राप्त होता है तथा उपकृत व्यक्ति में कृतज्ञता की भावना आती है। परोपकार की
सीमा शारीरिक सहायता तक ही सीमित नहीं है अपितु आर्थिक व बौद्धिक सहायता भी
परोपकार है। यदि विद्यालय, अनाथालय,
धर्मशाला बनाना परोपकार है तो दीन-हीन
निर्धन व्यक्तियों को निशुल्क शिक्षा देना भी परोपकार है। त्याग की भावना का
विस्तार करने के लिए परोपकार की आवश्यकता पड़ती है।
व्यक्तिगत जीवन में भी परोपकार का विशिष्ट
स्थान है। परोपकारी व्यक्ति समाज का हित तो करता ही है, वह
सामाजिक जीवन में भी सम्मान का आधिकारी होता है। इससे दीन-हीन लोगों को सहायता मिल
जाती है। समाज का कल्याण हो जाता है तथा ऐसा परोपकारी व्यक्ति सबके स्नेह, प्रेम और श्रद्धा का पात्र बनता है। रहीम ने
कहा है कि-
यो रहीम सुख होत है उपकारी के संग।
बाटन वारे को लगे ज्यों मेंहदी को रंग ।।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में किया अपने तमा
कल्याण के बारे में सोचे। पशु केवल अपने विषय में सोचता है। मानी ही संतान से
निवाला खींच लेता है। यदि मनुष्य भी वही आवक को तो दोनों में अंतर कैसा? यह
समाज जिसने आज इतनी तरक्की की है, सहयोग ही उसका आधार है। जब-जब मनुष्य सहयोग न कर, स्वार्थ
सीन ही जाता है तथा परोपकार को भूल जाता है तब-तब विश्व के समस्त नारी में युद्ध व
विनाशकारी कृत्य हुए हैं। कहा गया है कि "The bom way to pray to God is to love his creation."
हमारे इतिहास और पुराणों में परोपकार के अनेक
उदाहरण मिलते हैं। दधीचि ने मानव कल्याण तथा असुरों के संहार के लिए अपना शरीर
माता दिया। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण रक्षा के लिए अंग दान किए। महृषि
दयानंद ने विष पिलाकर प्राण लेनेवाले
अपने रसोइए जगनाथ के प्राणी की रक्षा धन देकर की। वर्तमान में भी अनेक सामाजिक
संस्था परोपकार के लिए धन और समय व्यय कर रही हैं।
भारतीय समाज में युगों से परोपकार की सुरसरि
प्रवाहित होती आई है। यहाँ ऋषि-मुनियों ने यही सीख दी है कि निराश्रितों को आसरा
दी। दीन-दुखियों व वृद्धों की शारीरिक और आर्थिक मदद करी। भूखों की भोजन करवाओ।
विद्वान हो तो विद्या का प्रचार कर जन तथा समान का उपकार करो। यहाँ सदा सबकी भलाई
में ही अपनी भलाई मानी जाती रही है। मनीषियों का मानना है कि मानव शरीर परमार्थ के
लिए ही बना है। संसार के सभी धर्मों का मूल परोपकार है। किसी भी संत-महात्मा ने
इसके बिना मनुष्य जीवन को सार्थक नहीं माना। औषधालय, गोशालाएं, और
धर्मशालाएँ बनाकर लोग परोपकार करते हैं। सभी अपने-अपना सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार
परोपकार करते रहें तो समाज व देश की। उन्नति होती रहेगी तथा 'वसुधैव
कुटुम्बर्क' की भावना फैलेगी। कविवर मैथिलीशरण
गुप्त कहते हैं कि-
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी,
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।
परोपकार
Paropkar
Essay # 2
पाप और पुण्य की परिभाषा करना सरल नहीं है। अलग-अलग विद्वानों ने पाप और पुण्य की परिभाषा अलग-अलग ढंग से की है। वेदव्यास ने अट्ठारह पुराणों की रचना करने के बाद सार रूप में प्रकट किया है। परोपकार सबसे बड़ा पुण्य है। दूसरों को दुःख देने से महापाप होता है प्रकृति हमें हमेशा परोपकार का संदेश देती है। सूर्य, चंद्रमा समान रूप से सभी को अपने प्रकाश व शीतलता प्रदान करते हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते। नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीतीं। दैनिक जीवन के सभी कार्य मनुष्य और पशु समान रूप से करते हैं। परोपकार की भावना ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। परोपकार से अनेक लाभ हैं। परोपकार से मनुष्य में उदारता, आत्मसंयम, सादगी, सहानुभूति तथा सद्गुण रूपी पुष्प खिलते हैं। हृदय पवित्र, निर्मल व साफ बनता है। त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति के मूलाधर रहे हैं। राजा शिवि ने कबूतर की प्राण-रक्षा के लिए बाज को अपने शरीर का मांस काट-काट कर दिया। परोपकार मानव व समाज का आधार है। सत्पुरुषों का अलंकार तो परोपकार ही है। आज आवश्यकता इस बात की है कि मानव स्वार्थ भावना को छोड़कर परोपकार की भावना को अपनाकर मानवता कल्याण का प्रयास करे।
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