पहला सुख निरोगी काया

Pehla Sukh Nirogi Kaya


'शरीरमायं खलु धर्म साधनम्' अर्थात स्वस्थ शरीर द्वारा ही अपने समस्त धर्मों का पालन संभव है। स्वस्थ शरीर एक नियामत है। प्राचीन काल से माना जाता है कि स्वस्थ रहने पर ही व्यक्ति अपने समस्त कर्तव्यों का पालन कर लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।


निरोगी काया सबसे बड़ा सुख है। रोगी व्यक्ति सदा अशांत, उद्विग्न व आलसयुक्त रहता है। उसकी स्मरणशक्ति क्षीण हो जाती है तथा किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगता। तभी तो अंग्रेज़ी में कहा गया है 'Health is wealth' अर्थात तंदरुस्ती हजार नियामत है। स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है और सांसारिक जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। महर्षि चरक ने लिखा है-


धर्मार्थकाम मोक्षणाम्,

आरोग्यं मूलं उत्तमम्। 


अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सबका मूल आधार स्वास्थ्य ही है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए स्वस्थ रहना नितांत आवश्यक है। बिना स्वस्थ रहे न तो सफलता प्राप्त होती न ही मानसिक सुख व शांति। रोगी व्यक्ति न तो पूजा-पाठ कर सकता है, न ही सांसारिक सुखों का आनंद ले सकता है और न ही धनोपार्जन करने की क्षमता होती है। सभी प्रकार की सफलता प्राप्ति के लिए स्वास्थ्य-रक्षा पर भरपूर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। मानव जीवन में अच्छे स्वास्थ्य का महत्त्व सर्वोपरि है।


स्वास्थ्य-रक्षा हेतु आहार, विचार तथा व्यायाम का विशेष महत्त्व है। स्वस्थ रहने तथा तन को सुगठित रखने हेतु नियमित व्यायाम तथा खेलकुद अनिवार्य है। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे पहले व्यायाम को व्यर्थ समझते थे पर बाद में उन्होंने व्यायाम के महत्त्व को जाना। कहा भी गया है कि-आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्यो महारिपुः। अर्थात आलस्य ही मनुष्य के शरीर का सबसे बड़ा शत्रु है।


नियमित रूप से व्यायाम करने से शरीर व मन दोनों को ही पर्याप्त विकास व लाभ होता है। व्यायाम से शरीर हृष्ट-पुष्ट बना रहता है. मांसपेशियों में मजबूती आ जाती है। भली प्रकार से रक्त संचार होने से तनमन दोनों में स्फूर्ति आती है। शरीर में शक्ति रहने से मनुष्य का हर काम में मन लगता है।


व्यायाम न करने वाले व्यक्ति आलसी, अकर्मण्य तथा स्थूलकाय हो जाते हैं। वे विभिन्न रोगों का शिकार होते हैं। प्रातः भ्रमण तथा खुली हवा में व्यायाम करने से फेफड़ों में ताजी हवा जाती है। इससे रक्त शुद्ध होता है तथा शरीर बलशाली हो जाता है। स्वस्थ व्यक्ति ही अपने ज्ञान का विवेकपूर्ण प्रयोग कर पाता है। अंग्रेजी में भी कहा गया है कि 'Soundmind in a sound body' अर्थात स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। स्वस्थ व्यक्ति के चित्त में उत्तम विचार आते हैं तथा अस्वस्थ व्यक्ति धीरे-धीरे आलसी, दुखी, हठी, क्रोधी तथा अविवेकी होता जाता है।


प्राचीन काल से ही हमारे देश में ऋषि-मुनियों ने स्वास्थ्य के महत्त्व को जान लिया था। उन्होंने लिखित व मौखिक रूप से विभिन्न योगासनों तथा प्राणायाम का वर्णन किया। प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थियों को नियमित रूप से प्राणायाम व आसन करवाए जाते थे। आज भी इसी प्रकार के व्यायाम की आवश्यकता है। आजकल प्रचलित क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, तैराकी, कबड्डी, कुश्ती, दौड़ आदि का नियमित अभ्यास किया जाए तो व्यायाम व खेल दोनों का लाभ मिल जाता है। इनसे शरीर सुंदर। व सुगठित बनता है तथा काया दीर्घायु हो जाती है।


स्वास्थ्य रक्षा हेतु संतुलित व पौष्टिक आहार लेना चाहिए। वर्तमान समय में प्रचलित गरिष्ठ भोजन, तेलयुक्त आहार, डिब्बाबंद खाना व शीतल पेय स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं। कम तेल, मिर्च-मसाले व कम वसायुक्त भोजन शरीर को बलशाली बनाता है। दूध, फल व दालों के सेवन से मुख पर कांति छा जाती है। सुपाच्य भोजन काया को लाभ पहुंचाता है।


स्वास्थ्य रक्षा में स्वच्छता का विशेष महत्त्व है। स्वच्छता उन व मन दोनों की होनी चाहिए। मनुष्य को न केवल अपने तन, वस्त्र व चर की सफ़ाई की तरफ ध्यान देना चाहिए अपितु गली-मोहल्ले व नगर की स्वच्छता के प्रति भी जागरूक रहना चाहिए। प्रदूषित वायु तन-मन व मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती है। आसपास का प्रदूषित वातावरण अनेक बीमारियों को जन्म देता है तथा स्वास्थ्य का शत्रु होता है। आहार-विहार के साथ आचार-विचार की शुद्धता भी स्वास्थ्य को ठीक रखने में विशेष भूमिका निभाती है। अच्छे आचार-विचार मनुष्य को कर्मरत रहने व कर्तव्यपालन की प्रेरणा देते हैं। अतैव स्वास्थ्य रक्षा तथा व्यायाम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आहार, आचार-विचार, खेलकूद, स्वच्छता सब इनके अनिवार्य व अटूट अंग हैं।


स्वास्थ्य रक्षा के लिए मनुष्य को प्रसन्नचित रहना चाहिए। आजकल चिकित्सक हर व्यक्ति को प्रतिदिन हंसने की सलाह देते हैं। हंसना तन व मन दोनों का उत्तम व्यायाम है। इससे मन तनावमुक्त हो जाता है तथा शरीर के समस्त अवयवों में रक्त संचार हो जाता है। स्वस्थ रहने के लिए मन तथा भावनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। दुखी व्यक्ति की भूख हो समाप्त हो जाती है। संस्कृत में कहा भी गया है कि चिंता चिता सम दहति अर्थात चिंता मनुष्य को चिता के समान जला देती है। तनावमुक्ति के लिए संतोषी तथा उदार प्रकृति को अपनाना चाहिए। ये प्रकृति न केवल सामाजिक मान-मर्यादा प्रदान कर हमें आनंद का पात्र बनाएगी अपितु मन में उल्लास व जोश भी भर देगी जो स्वस्थ रहने के लिए परम आवश्यक है.


स्वास्थ्य रक्षा के लिए समयबद्घता, अनुशासन, स्वच्छता, मानव व्यायाम, नियमितता, सदाचार, योगाभ्यास इत्यादि सबका पालन करना चाहिए। जीवन की सफलता का मुख्य आधार स्वास्थ्य ही है। स्वस्थ व्यक्ति स्वयं का, देश व जाति का कल्याण करने में अपना योगदान सकता है।


छात्र जीवन में स्वास्थ्य-रक्षा हेतु समस्त नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए। तभी छात्र अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर देश की उन्नति में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।