पुस्तकें: हमारी सच्ची मित्र 

Pustake Hamari Sachhi Mitra 

लोकमान्य तिलक का कहना था- 'मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूँगा क्योंकि इनमें वह शक्ति है, जहाँ होंगी स्वर्ग अपने आप बन जाएगा।' मित्र तो विश्वासघात भी कर सकते हैं, रूठकर मुंह भी मोड़ सकते हैं, किन्तु पस्तक सदा सच्चे मित्र की भाँति सुख-दुख में हमारा साथ देती है। सत्साहित्य विपत्ति में हमारा आत्मबल बनाए रखता है, निराशा के अंधकार में आशा का दीपक जलाता है, जिज्ञासा के कोहरे को छाँटकर ज्ञान का सूर्य बन जाता है। पुस्तकें जागृत देवता हैं। उनकी सेवा करके तत्काल वरदान प्राप्त किया जा सकता है। संसार को महान विभूतियों ने अपने जीवन पर पस्तकों के प्रभाव को स्वीकारा है। महात्मा गांधी 'गीता' से, टॉलस्टॉय, संत थोरो के साहित्य से अत्यधिक प्रभावित थे। लेनिन में क्रांति के बीज मार्क्स की 'दा कपीटल' ने डाले थे। महापुरुषों के विचारों से परिचित होने का भी एकमात्र माध्यम पस्तकें ही होती हैं। क्लाइव का यह कथन पूर्णतया सत्य है कि मानव जाति ने जो कुछ किया, सोचा और पाया है, वह पुस्तकों के जाद्भरे पृष्ठों में सुरक्षित है। किताबों की दुनिया घर बैठे ही हमें विश्व-भ्रमण करा देती है। भरपूर मनोरंजन कर उदासी दूर भगाती है। कल्पना के पंखों पर बैठाकर हमारी सृजनात्मूकता को उड़ान देती है। जिसे पुस्तकों से प्यार हो जाए, उसके जीवन में कभी शून्यता आ ही नहीं सकती। पुस्तकों जैसा और कौन मित्र हो सकता है जो न दंड देता है, न बदले में कुछ प्रतिदान चाहता है, न नाराज़ होकर रूठता है, बस देता ही देता है-अजस्र ज्ञान का अमृत-रस, जो जीवन को सरस और सार्थक बना देता है।