विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्व

Vidyarthi Jeevan me Anushasan ka Mahatva


'यही तुम्हारा समय ज्ञान संचय करने का' 

संयम, शील, सुशील, सदाचारी बनने का। 

यह होगा संभव, अनुशासित बनने से,

माता-पिता गुरु की, आज्ञा पालन करने से। 

विद्यार्थी जीवन को 'अनशासन की पहली पाठशाला' कहा जा सकता है क्योंकि यही वह कालखंड है जब एक ओर ज्ञानार्जन कर वह स्वयं को सक्षम एवं सयोग्य बनाता है तो दसरी ओर व्यक्तित्व और चरित्र-निर्माण की नींव भी इसी समय रखी जाती है। लकिन यही वह काल-खंड भी है, जब मन की चंचलता अपने चरम पर होती है और होश से अधिक जोश होता है। कुप्रभाव में आकर गुरुजनों का अपमान करना, बहकाए में आकर तोड़-फोड़ जैसी हिंसक गतिविधियों में प्रवृत्त हो जाना, कुसंगति में पड़कर आवारागर्दी और गप्पों में समय व्यर्थ गँवाना, अनुशासनहीनता के द्योतक हैं। इससे विद्यार्थी पढ़ाई में पिछड़ जाता है और जा शाक्त एंव ऊर्जा रचनात्मूक कार्यों में लगनी चाहिए थी, वह अनिष्टकारी कार्यों में नष्ट हो जाती है। जो संस्कार एवं आदतें विद्याथा-काल में पड़ जाती हैं वे जीवन-भर रहती हैं क्योंकि इस समय वह कच्ची मिट्टी के समान होता है, जिसे मनचाहा नाकार दिया जा सकता है। अनुशासित जीवन-चर्या व्यक्तित्व को इतनी दृढ़ता प्रदान करती है कि फिर बड़ी से बड़ी चुनौतियों, बाधाआ और संघर्षों की आँधी भी उसे विचलित नहीं कर पाती और वह सुस्थिर कदमों से निरंतर सफलता के उच्चशिखरों की ओर अग्रसर होता रहता है। महात्मा गांधी का यह कथन पूर्णतया सत्य है-'अनुशासन अव्यवस्था के लिए वही कार्य करता की है, जो तूफ़ान और बाढ के समय किला और जहाज।' विद्यार्थी-काल में ही जो अपने बाहर और भीतर अनुशासन ले आता है, उसकी विजय सुनिश्चित है।