दिल्ली का बदलता चेहरा
Delhi ka Badalta Chehra 


का दिल कही जाने वाली दिल्ली का चेहरा 'इंद्रप्रस्थ' से 'नई दिल्ली' बन जाने तक की यात्रा में ना जाने कितनी बार बना और बिगड़ा है। पुरानी दिल्ली तक सिमटा यह शहर आज हरियाणा और और उत्तर प्रदेश की सीमाओं तक फैल चुका है। हमारे लिए तो यह कल्पना करना तक असंभव है कि कभी चाँदनी चौक के बीच में नहर बहती थी और चारों ओर हरा-भरा जंगल था। हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का केंद्र थी दिल्ली जो अपनी साहित्यिक विरासत के साथ-साथ मेलों, रस्मो रिवाजों, खान-पान और रहन-सहन की विशिष्टिता के लिए प्रसिद्ध थी। जिसके लिए कभी ग़ालिब ने कहा था-'कौन जाए ग़ालिब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर'। अगर ग़ालिब आज अपनी दिल्ली का चेहरा देखें तो गश खाकर गिर पड़ें। छोटे-छोटे फ्लैटों वाली गगनचुंबी अट्टालिकाएँ (इमारतें), सड़कों और पुलों का जाल, उन पर बेतहाशा दौड़ती गाड़ियाँ, ट्रैफ़िक जाम, लालबत्ती के हरी होने की लंबी प्रतीक्षाएँ, एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़, धक्का-मुक्की, तू-तू-मैं-मैं, दुर्घटनाएँ, उनसे उदासीन मुँह फेर कर निकल जाने वाले लोग, यह है आज की दिल्ली का नया चेहरा। कहने को तो दिल्ली के सौंदर्गीकरण के लिए नई सड़कें और बाग-बगीचे बनाए गए हैं। पुरानी सड़कों को चौडा किया जा रहा है, मैट्रो रेल और तीव्रगति वाली बसों की व्यवस्था हो रही है। लेकिन दिल्ली का चेहरा जितना बनता है उतना ही बिगडता भी जाता है। पहले बँटवारे के मारे शरणार्थियों को बसाने में और अब देश के कोने-कोने से रोजी रोटी की तलाश में आने वालों के कारण यहाँ की जनसंख्या एक करोड़ को पार कर चुकी है। उन्हें बिजली-पानी, स्वास्थ्य सेवाएँ और यातायात की सुविधाएँ प्रदान करना सचमुच एक चुनौती है। सरकारी विभागों के भ्रष्ट कर्मचारियों ने रही सही कसर पूरी कर दी है। परिणाम? आज दिल्ली का कोई एक चेहरा नहीं रहा है। कहीं सभ्रांत लोगों की साफ़, सुंदर, शांत बस्तियाँ है, बड़े-बड़े बगीचे, बड़े-बड़े मॉल्स और अक्षरधाम जैसे भव्य मंदिर हैं तो कहीं गंदी झुग्गी-बस्तियाँ, कूड़े के ढेर, टूटी-फूटी सड़कें, शोरगुल और नित नए अपराध हैं। कहीं विश्वस्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम की धूम है तो कहीं असभ्य व्यवहार और गाली गलौच का बाजार गर्म है। यह अब देखने वाले पर है कि वह दिल्ली के बदलते चेहरे का कौन-सा रूप देखना चाहता है।