ऋतओं की रानी: वर्षा 
Rituon ki Rani - Varsha


जल ही जीवन है और जल का प्रमुख स्रोत है-वर्षा। धूल, पसीने से परेशान प्राणियों, सूखी निर्जीव प्रकृति को पुनर्जीवन प्रदान करने आती है-वर्षा रानी। अपनी बूंदों की पायल छमकाती, बादलों की काली चूनर में, बिजली के दमूकते सितारे चमकाती, जब यह धरती पर उतरती है तो चारों ओर उल्लास छा जाता है। सूखी नदियाँ-तालाब-कुएँ भर जाते हैं, सूखे पेड़-पौधे लहलहा उठते हैं। आनंद और पर्यों का उपहार लेकर वर्षा आषाढ़ से भादों तक धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित रखती है। पशु-पक्षी, किसान, पेड़-पौधे सभी प्राणी प्रसन्नता से नाच उठते हैं। जिस वर्ष रानी रूठ जाती है उस वर्ष चारों ओर त्राहि-त्राहि मच जाती है। इंद्रदेव को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किए जाते हैं। किसानों की दृष्टि आकाश पर जम जाती है-कब वहाँ काले बादल छाएँ और उन्हें 'गुडधानी' का प्रसाद दें। मयूर 'मेहू-मेहू' ध्वनि से आकाश गुंजा देते हैं और अंतत: जब रूठी रानी मान जाती है तो मयूर अपने सुंदर पंख फैलाकर उसका स्वागत करते हैं। झूलों पर झूलती कन्याओं के मधुर-कंठ से कजरी के स्वर फूटने लगते हैं, लहरिया ओढे. पग में पायल बाँधे वे थिरकने लगती हैं। मेढकों की टर्र-टर्र, झींगुरों की झन-झन, पपीहों की मधुर पुकार सभी मानो चारण बन वर्षा-रानी का गुणगान करने में मग्न हो जाते हैं। जैसे गुलाब काँटों से घिरा होता है वर्षा के आनंदोत्सव में कीट-पतंगे, साँप, बिच्छू और मच्छरों का प्रकोप रसाभास ले आता है, किंतु गुलाब के सौंदर्य और मादक गंध के आकर्षण को जिस प्रकार उसके कांटे मलिन नहीं कर पाते उसी प्रकार ये प्रकोप वर्षा के सुंदर, मादक, उपयोगी स्वरूप की महत्ता को कम नहीं कर पाते।