धैर्य का महत्व  
Dherya ka Mahatva 


कार्य की पूर्णता की एक निश्चित अवधि होती है-यह प्रकृति का नियम है। कहते हैं न हथेली पर सरसों नहीं उगती'। बीज बोते ही वह फलदार वृक्ष नहीं बन जाता। इतना ही नहीं हर वनस्पति के पल्लवित, पुष्पित, और फलित होने का अपना एक समय होता है। ऋतुओं का भी अपना एक चक्र होता है-जिसे हम बदल नहीं सकते। जिन वृक्षों में ग्रीष्म ऋतु में फल-फूल आते हैं उन्हें शीत ऋतु में पा लेने की आकांक्षा रखना मूर्खता है। उस ऋतु में भी फलों के पकने में समय लगता है। कितना सही कहा है कवि ने-

'धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥' 

धैर्य धारण करना विवशता नहीं विवेकशीलता है। उतावलेपन से व्यक्ति वह भी खो बैठता है जो वह धैर्य रखकर पा सकता था। सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की कहानी से तो सभी परिचित हैं। अधैर्य से जो क्षति होती है उसकी भरपाई करना संभव हा नहीं होता। बुरे से बुरा समय भी धैर्य धरने से आसानी से गजारा जा सकता है। जीवन में संताप, मानसिक असंतुलन, अवसाद के मूल में प्रायः धैर्य का अभाव ही होता है। जीवन में सफलता पाने का और दुखमय क्षणों को भी सामान्य बनाने का एक ही मूलमंत्र है और वह है-धैर्य।