टी.वी. का जीवन पर प्रभाव
TV ka Jeeva par Prabhav 

टी.वी. को चाहे 'बुद्धू-बक्सा' कहें या 'जादू का पिटारा', वास्तविकता यह है कि आज इसके प्रभाव से अछूता रह पाना संभव नों से लेकर झोंपड़ियों तक इसकी घुसपैठ है। यह अमृत भी परोसता है और विष भी। ज्ञान-विज्ञान का अक्षय-भंडार हमारे सम्मुख खोलकर इसने हमारी दृष्टि, हमारी सोच को विस्तार दिया है- मानवीय उद्देश्यों से प्रेरित होकर इसने सुनामी त्रासदी, तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं की संवेदनशील कवरेज देकर जन-चेतना जगाने का अभूतपूर्व कार्य किया है। जैसिका प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड एवं निठारी में बच्चों की निर्मम हत्याओं जैसे मामलों को कूड़ेदान में से निकालकर समाज के ने रखा है। नित्य नए 'स्टिंग ऑपरेशन' भ्रष्ट डॉक्टरों, अफ़सरों, वकीलों और यहाँ तक कि जजों के असली चेहरों पर से नकाब हटा रहे हैं। इस प्रकार सरकार, अदालत, बौद्धिक वर्ग और आम जनता की चेतना को आंदोलित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य यह संपन्न कर रहा है। इस सकारात्मक अमृत रूप के साथ इसके नकारात्मक विष-तत्व को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। फूहड़ नाच-गाने, धारावाहिकों में पारिवारिक विघटन, अविश्वास, विवाहेतर संबंधों को ग्लैमर की चाशनी में पकाकर परोसा जा रहा है। आज हमारी आस्थाओं, मूल्यों और रिश्तों पर इसका घातक प्रभाव देखा जा सकता है। ऐसे कार्यक्रम जो विषबीज कच्चे मानस में बो रहे हैं जिसकी विषाक्त फ़सल हमारे भविष्य को रोगग्रस्त बना सकती है। अंतत: कहा जा सकता है कि टी. वी. मनोरंजन और ज्ञान का एक ऐसा अरण्य है, जिसमें हरीतिमा और झरने भी हैं तथा ज़हरीले पेड़-पौधे और हिंसक पशु भी। आवश्यकता है कि हम सचेत होकर स्वविवेक से इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ, तभी यह अमृत-घट बन जन-जीवन में नव-जीवन का संचार करेगा और 'सत्यं शिवं- सुंदरम्' की स्थापना करने में योगदान दे सकेगा।