लड़का-लड़की एक समान 
Ladka Ladki Ek Saman

अभेद और सहअस्तित्व का मूक-संदेश देती प्रकृति के हर क्रिया-कलाप में एक संतुलन है और इसीलिए करोडों वर्षों से नर-मादा की संख्या में सही अनुमान बना रहा है, लेकिन मानव-निर्मित परंपराओं में इस विवेक का अभाव रहा है। लडका और लड़की में मात्र इसलिए भेदभाव किया जाता रहा क्योंकि लड़के को कुल का संवाहक, पितरों का मुक्तिदाता और 'बुढ़ापे की लाठी' के रूप में देखा जाता रहा और लड़की को 'पराया-धन' मान बोझ समझा गया। कितने ही राज्यों में लड़की के जन्म लेते ही पलंग के पाए से दबाकर या गला घोंटकर मार देने का रिवाज़ रहा है। इससे अधिक लज्जाजनक और क्या हो सकता है कि आज भी ऐसे रूढ़िवादी जड़-बुद्धि लोग समाज में हैं, जो विज्ञान का सहारा लेकर कन्या भ्रूण को गर्भ में ही नष्ट कर देने जैसा जघन्य अपराध कर रहे हैं। यह रुग्ण मानसिकता पूर्णतया तभी समाप्त हो सकती है, जब लड़कों की भाँति लड़कियों को भी शिक्षा प्रदान कर आत्मनिर्भर बनाया जाए। जिन परिवारों में लड़कियों को पूर्ण प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है, उन्होंने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है। पुरुषों के लिए आरक्षित क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पुलिस में किरन बेदी, सेना में ले० जनरल पुनीता अरोड़ा, एयर मार्शल पन्नावती बैनर्जी या अंतरिक्ष में उड़ान का नया रिकार्ड स्थापित करने वाली सुनीता विलियम्स जैसी एक नहीं बल्कि अनेक महिलाएँ मानो पुकार-पुकारकर कह रही हैं- 'हम किसी से कम नहीं हैं।' किरन मजूमदार जैसी अनेकानेक महिलाएँ कॉरपोरेट घरानों को कुशलता से संचालित कर रही हैं। समयानुसार विचारों और परंपराओं में परिवर्तन लाने में ही समाज का कल्याण है। लड़का हो या लड़की; दोनों को समान आदर-सम्मान तथा अधिकार प्रदान करके ही हम प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।