पर्वतीय स्थल की यात्रा का वर्णन करते हुए मित्र को पत्र। 

3/6 दुर्गाकुंड 

वाराणसी-221104 

6 जुलाई 2012 

प्रिय अंकित, 

सस्नेह नमस्ते! बहुत दिनों से तुम्हें पत्र नहीं लिखा, क्षमा करना। सर्वप्रथम कक्षा में द्वितीय स्थान प्राप्त करने की बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करो। मुझे भी इस वर्ष परीक्षा में 92 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए और इसी के पुरस्कार स्वरूप पिता जी ने मेरी चिर अभिलाषित इच्छा पूरी की। हम हिमालय की गोद में बसे सुंदर शहर दार्जिलिंग गए। फ़िल्मों, पत्र-पत्रिकाओं में पर्वतीय सौंदर्य देखकर मैं अभिभूत हो उठता था। दार्जिलिंग पहुँचकर लगा कि जैसे मैं स्वर्ग में आ गया हूँ। कंचनजंघा के हिमाच्छादित शिखरों पर पड़ती सूर्य की रश्मियों ने तो जैसे सौंदर्य की गंगा ही बहा दी थी। दिल कर रहा था, बस अपलक उस सौंदर्य को निहारता ही रहूँ। चारों ओर हरियाली-ही-हरियाली थी। हम जिस स्थान पर ठहरे थे, वहाँ से दूर-दूर तक घाटी में फैले चाय के बागान दिखाई देते थे। अपनी पीठ पर टोकरी बाँधे रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किए ग्रामीण महिलाएँ दूर से हरे-भरे पौधों के बीच रंग-बिरंगे खिले फूलों जैसी लगती थीं। इतनी तेज़ी से वे पौधों से चाय की तीन पत्तियाँ दोनों हाथों से चुनकर पीठ पर बँधी टोकरी में डालती थीं कि हम देखते ही रह जाते थे। चाय के बगीचों के बीच में ही चाय की छोटी-छोटी दुकानें भी थीं जहाँ ताज़ी हरी पत्ती वाली चाय भी मिलती थी। उस चाय का जायका अब तक मेरी जुबान पर है। 

कल ही हम दार्जिलिंग से लौटे हैं। वहाँ तो पलक झपकते ही आकाश में बादल घिर आते थे और छमाछम वर्षा शुरू हो जाती थी। ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों से सारी थकान दूर हो जाती थी। यहाँ लौटकर फिर वही गरमी, उमस और तपन। 

मित्र, मैंने सोच लिया है कि मैं इसी प्रकार परिश्रम करके और अच्छे अंक प्राप्त करता रहूँगा और अगली बार पिता जी से कश्मीर ले चलने का अनुरोध करूँगा। पर्वतीय प्रदेशों के सौंदर्य में एक अजीब-सा आकर्षण है। तन-मन दोनों को प्रसन्नता और शांति का दिव्य अनुभव होता है। 

तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा रहेगी। अपने आदरणीय माँ-बापू को मेरा सादर चरण-स्पर्श कहना। तुम्हारा अभिन्न मित्र

शुभेंदु