पिता जी के सत्संगति में रहने की प्रेरणायुक्त पत्र का उत्तर देते हुए पुत्र का पत्र।

गांधी भवन 

भारतीय विद्यापीठ 

पुणे-411001 

दिनांक 26 जनवरी 2012

आदरणीय पिता जी, 

सादर चरण-स्पर्श! आपके पत्र के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। यह पत्र मेरे लिए एक अनमोल धरोहर के समान है। मैं आजीवन आपकी सीख और बताए रास्ते पर चलने का प्रयत्न करूँगा। यह पत्र ऐसे समय पर मुझे प्राप्त हआ, जब इसकी मुझे अत्यंत आवश्यकता थी। मैं हैरान हूँ कि आपने यह कैसे जान लिया कि काफ़ी समय से मैं ऐसे मित्रों की संगति में फँसा रहा हूँ जिनकी न पढ़ने-लिखने में रुचि है और न ही सदाचार में विश्वास। शायद मेरे परीक्षा परिणाम ने आपको यह मूक संदेश दिया हो। संजय, पंकज, अनिरुद्ध और दिवाकर जैसे मित्रों के चले जाने से मैं बहुत अकेला पड़ गया था। उन उदासी और एकाकीपन के क्षणों में वरुण, दिनेश, प्रगुण जैसे लड़कों के हँसमुख स्वभाव ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया। धीरे-धीरे उनके साथ रहकर मुझे भी व्यर्थ गप्पे मारना, कक्षाओं में न जाकर छिपकर ताश खेलना, छात्रावास की दीवार फांदकर शहर में जाकर सिनेमा देखना अच्छा लगने लगा। मेरे अध्यापक भी मेरे इस परिवर्तन से हैरान-परेशान थे।

पिता जी, आपके पत्र ने मुझे झकझोर कर जगा दिया। मुझे अहसास हुआ कि मैं किस परिवार का लड़का हूँ। हमारे मूल्यों ने ही समाज में हमारा सम्मान बनाए रखा है। मैं कुसंगति में रहकर उसके कुप्रभावों का अनुभव कर चुका हूँ। मैं आपको आश्वासन देना चाहता हूँ कि अब मैं ऐसी भूल कभी नहीं करूँगा। सदाचारी मित्रों की तलाश करूँगा, नहीं तो पुस्तकों से ही मित्रता बढ़ाऊँगा। 

आपके प्रेरणादायी पत्र के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आप निश्चित रहिए। सुबह का भूला आपका पुत्र शाम को घर लौट आया है। आप इसी प्रकार मुझ पर स्नेह की वर्षा और मार्ग-दर्शन करते रहें। पुज्या माँ को मेरा सादर चरण-स्पर्श! 

आपका प्रिय पुत्र 

सुशांत