वह दौर, यह दौर 
Vah Daur, Yah Daur

कभी कॉमिक्स का जबर्दस्त क्रेज़ था। बच्चे इससे मनोरंजन और ज्ञानार्जन, दोनों करते थे। उनके अंदर पाठयक्रम से इतर पढ़ने बाल पनपता था। लेकिन आज बच्चे कंप्यूटर पर हिंसक गेम्स और अवांछित सामग्री में उलझे हैं। खेल-तमाशे और बादरकोप गमशदा हैं और वीडियो गेम्स की धमक घर-घर तक है। एक समय था, जब रामायण, महाभारत टीवी पर देखने के लिए पूरा मुहल्ला जुटता था। अब तो मल्टीप्लेक्स थिएटरों का दौर है। दूरदर्शन निजी चैनलों की भीड़ में खो चुका है। सुख-दुःख की पाती अपनों तक पहुँचाने वाले लेटर बॉक्स, ई-मेल के समय में उपेक्षा के शिकार हैं। एक जमाने में पेंटर साइनबोर्ड बनाकर अच्छी-खासी कमाई कर लेते थे, तो आज फ्लेक्स प्रिंटिंग के आने से पेंटर या तो बमुश्किल गुजारा कर रहे हैं या व्यवसाय बदलने को मजबूर हैं। यह सब कहने का मतलब है कि वक्त तेजी से बदल रहा है, इसलिए वक्त के साथ चलने की ज़रूरत है और मजबूरी भी। तकनीक की रफ़्तार के आगे कल की बातें आज पुरानी हो चुकी हैं। मशीनी युग में विकास के साथ जज़्बात भी बने रहें, तो बेहतर होगा।