मित्रता 
Mitrata


जब मनुष्य के ऊपर विपत्ति के काले बादल घनीभूत अन्धकार के समान छा जाते हैं और चारों दिशाओं में निराशा के अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तब केवल सच्चा मित्र ही एक आशा की किरण के रूप में सामने आता है। तन से, मन से, धन से वह मित्र की सहायता करता है और विपत्ति के गहन गर्त में डूबते हुए अपने मित्र को निकाल कर बाहर ले आता है।


मित्रता होनी चाहिये मीन और नीर जैसी। सरोवर में जब तक जल रहा, मछलियाँ भी क्रीड़ा तथा मनोविनोद करती रहीं। परन्तु जैसे-जैसे तालाब के पानी पर विपत्ति आनी आरम्भ हुई, मछलियाँ उदास रहने लगी, जल का अन्त तक साथ दिया। उसके साथ संघर्ष में रत रहीं, परन्तु जब मित्र न रहा तो स्वयं भी अपने प्राण त्याग दिये, परन्तु अपने साथी जल का अन्त तक विपत्ति में भी साथ न छोड़ा। मित्रता दूध और जल की सी नहीं होनी चाहिये कि जब दूध पर विपत्ति आई और वह जलने लगा तो पानी अपना एक ओर को किनारा कर गया, अर्थात् भाप बनकर भाग गया। बेचारा अकेला दूध अन्तिम क्षण तक जलता रहा। स्वार्थी मित्र सदैव विश्वासघात करता है, उसकी मित्रता सदैव पुष्प और भ्रमर जैसी होती है। भंवरा जिस तरह रस रहते हुए फूल का साथी बना रहता है और इसके अभाव में उसकी बात भी नहीं पूछता। इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी विपत्ति के क्षणों में मित्र का सहायक सिद्ध नहीं होता।


इसीलिये संस्कृत में कहा गया है कि "आपदगतं च न जहाति ददाति काले" अर्थात् विपत्ति के समय सच्चा मित्र साथ नहीं छोड़ता, अपितु सहायता के रूप में कुछ देता ही है। जिस प्रकार स्वर्ण की परीक्षा सर्वप्रथम कसौटी पर घिसने से होती है, उसी प्रकार मित्र की विपत्ति के समय त्याग से होती है। इतिहास साक्षी है कि ऐसे मित्र हुये हैं, जिन्होंने अपने मित्र की रक्षा में अपने प्राणों की भी आहुति दे दी।