गर्मियों की छुट्टियों के बारे में मित्र को पत्र ।


7/18, बुद्धनगर, 

गया

12-7-1991 


प्रिय राजू,

नमस्ते।

तुम्हारा पत्र मिला। तुम चाहते हो कि मैंने ग्रीष्मावकाश किस तरह बिताया, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन करूं। तुम जानते हो कि गया बिहार का जैकोबाबाद है। यहाँ मई-जून में इतनी गर्मी पड़ती है कि क्या बताऊँ। दिनभर लू चलती रहती है, धूल के बगूले उठते रहते हैं। तुम जानते हो कि मैं एक ऐसे पिता का पुत्र हूँ, जिनकी आय चार सौ रुपये से ज्यादा नहीं है। इसलिए हमारे गरीबखाने में एयरकूलर और बिजली-पंखे कहाँ ? खस की टट्टियाँ, गुलाबजल का छिड़काव कहाँ ? हमारे बन्द अँधेरे कमरे को ही वातानुकूलित कक्ष समझो। दिनभर हमलोग एक तंग कमरे में कैद रहते थे। पसीने और उमस के मारे बुरा हाल होता था। दिन पहाड़-सा लगता था। हम जैसे-जैसे चाहते कि दिन छोटा हो, वैसे-वैसे वह सुरसा की तरह और मुँह फैलाये बढ़ता जाता था।

हाँ। रात में जब मैं छत पर चला जाता, तब टहटह कपूरी चाँदनी में थोड़ी राहत मिल जाती। मुरझाये प्राण थोड़ी देर के लिए हरे हो जाते। लगता, चाँद अपनी अमृत-किरणों से हम दीनों को मृतसंजीवनी बाँट रहा हो। किन्तु, वह रात क्या ज्यादा ठहर पाती? बस, खंजन पक्षी की तरह फुर्र से उड़ जाती। इसी तरह दिन-रात के बड़े-छोटे पन्नों को उलटते-पलटते पूरा अवकाश बीत गया। तुम पूछोगे कि तुमने पाठ्यपुस्तकों के कितने पन्ने पढ़े। मेरा उत्तर होगा कि मैं तो उन्हें उलट-पलट भी नहीं सका-पढ़ने की बात कौन कहे! 

इस प्रकार, पूरी छुट्टी में कष्टों के बीच भी इन्द्रधनुषी दिवास्वप्न देखता रहा। विधाता ने यदि मेरी भाग्यलिपि सुनहली लेखनी से लिखी होती, तो इस समय मैं भी शिमला, नैनीताल, मसूरी-जैसी पहाड़ियों पर आनन्द लेता, सुख लूटता। मेरी किस्मत में गया की दुर्गन्ध छोड़ती नालियों के किनारे बना एक ऊँघता बढा मकान ही बदा है।

यदि मैं कोई कवि होता, तो इस ग्रीष्मावकाश का ऐसा हदय-विदारक वर्णन करता कि तुम्हारा हृदय पिघल जाता, तुम्हारे रोंगटे खड़े हो जाते। काश ! ईश्वर ने वह क्षमता दी होती।

आशा करता हूँ, तुमने गर्मी की छुट्टी मौज और मस्ती में बितायी होगी। पत्रोत्तर शीघ्र देना।

तुम्हारा अभिन्न

सुरेश

पता-श्री राजीवरंजन,

द्वारा-सचिव, विकास-विद्यालय, राँची-834001