विद्यालय के प्रथम दिन के अपने अनुभव के सम्बन्ध में मित्र को पत्र । 


माध्यमिक विद्यालम

गिरिडीह

10-1-1992 


प्रिय अमरेश,

नमस्ते!

तुम्हारा पत्र मिला। तुमने विद्यालय के प्रथम दिन के अनभुव के बारे में जानना चाहा है। तुम जानते हो कि सातवीं श्रेणी तक पिताजी ने मेरी पढ़ाई लिखाई की

व्यवस्था घर पर ही कर डाली थी। मेरे घर पर रहनेवाले शिक्षक मुझे सबह-शाम थोड़ी देर के लिए पढ़ा दिया करते थे। ये शिक्षक जैसे नहीं, बड़े भाई जैसे मालूम पड़ते थे। मैं परिवार मे अकेला लड़का था। अतः पढ़ने के समय अकेला ही रहा करता था। न कोई सहपाठी, न कोई मित्र।

पहली बार जब मेरा नाम मेरे गाँव से चार मील की दूरी पर स्थित इस विद्यालय में लिखाया गया, तो पता लगाना पड़ा कि हमारी कक्षा कहाँ होगी। हमारे विद्यालय का भवन छड़ी जैसा लम्बा है। सबसे पश्चिम आठवीं श्रेणी का कमरा है। कक्षा में 15-20 चे पड़ी थीं। आगे की बेंच पर मैं बैठ गया। फिर और भी छात्र आये। तीन-चार छात्र उस बेंच पर बैठ गये। साढ़े दस बजे पढ़ाई शुरू हुई। वर्ग-शिक्षक रजिस्टर लिये आये। उन्होंने क्रमांक पुकारना शुरू किया—एक दो, तीन! यह सब मेरे लिए नया था। लड़के 'जी हाँ, 'हाँ जी', 'हाजिर हुजूर', 'उपस्थित महाशय', 'यस सर'-न मालूम, क्या-क्या कहते। मेरे लिए समस्या हो गयी कि मैं क्रमांक पुकारने का उत्तर क्या कहकर दूं। मैंने डरते-डरते 'जी हाँ कहा। क्रमांक पुकारना जब समाप्त हुआ, तब फिर उन्होंने प्रत्येक छात्र का परिचय पूछा। परिचय के क्रम में यदि कोई रोचक उत्तर होता, तो कुछ लड़के हँस देते। शिक्षक को कई बार 'शान्त रहो', 'शान्त रहो' कहना पड़ा। एक घंटी बीती। दूसरी घंटी में दूसरे शिक्षक आये। दूसरी घंटी बीती; तीसरे शिक्षक आये। तीसरी घंटी बीती; चौथे शिक्षक आये। किसी ने अंगरेजी पढ़ायी तो किसी ने हिन्दी, किसी ने भूगोल पढ़ाया तो किसी ने इतिहास। चार घंटियों के बाद टिफिन हुआ। आधे घंटे के टिफिन में सब लड़के मैदान में चले आये। फिर कोई मूंगफली खाने लगा तो कोई आइसक्रीम, कोई टनटन-भाजा तो कोई मुरब्बा। एक छात्र जो चार घंटियों तक साथ बैठा था, उसने दो आइसक्रीम खरीदे-एक मेरी ओर बढ़ाया। मैंने कहा कि मैं बाजार की चीज नहीं खाता। मेरे सहपाठी ने बड़ी जिद की, फिर भी मेरे संकोची मन ने उसे स्वीकार नहीं किया। टिफिन के बाद तीन घंटियों तक कक्षा चली। पहली घंटी में केवल एक नये शिक्षक आये। शेष घंटियों में वे ही शिक्षक आये, जो पहले आये थे। इस बार इन्होंने दूसरा विषय पढ़ाया। चार बजे पढ़ाई समाप्त हुई।

छुट्टी होने पर मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं फाटक या कठघरे से निकला हैं। इतनी देर तक इतने लोगों से घिरे रहने का मेरे जीवन में पहला अवसर था। मुझे लगता था कि जैसे स्कूल नहीं हो, बल्कि कोई फैक्टरी हो। बन्द कमरों में इतने लोगों के बीच भला कोई शिक्षक प्रत्येक छात्र की ओर कैसे ध्यान दे पायेगा। यह तो अध्ययन का तपोवन नहीं, वरन् ज्ञान का व्यापार-गृह है। पता नहीं, मेरा मन इस वातावरण में कब तक अपने को समायोजित कर पायेगा !

अन्य बातें पीछे लिखेंगा।

तुम्हारा

राजेश

पता-श्री अमरेश पाठक, द्वारा प्राचार्य,

जिला स्कूल, हजारीबाग-825301