वायुयान 
Aeroplane 


पक्षी की तरह पंख पसारकर उन्मुक्त वायुमंडल में उड़ने की आकांक्षा पर पहले, भले ही, हँसी आती हो, आदिकवि वाल्मीकि द्वारा वर्णित पष्पकविमान पर भले ही, कभी अविश्वास की काई जमती हो, किन्तु आज जब हम वायुयान पर चढ़कर गगन-मंडल की सैर करते हैं, तब कुछ भी विस्मय नहीं होता।

वायुयान की कहानी मनुष्य के असीम साहस की कहानी है। मनुष्यों ने पेड़ों से कूदते हुए हाथ फैलाकर चेष्टा की कि वे चिड़ियों की तरह उड़ सकें, किन्तु उन्हें जान गवाने के सिवा और कुछ प्राप्त न हो सका। फिर स्टीफेन, जोसेफ तथा मांटगाल्फियर जैसे व्यक्तियों ने चेष्टा की कि वे गुब्बारे के सहारे आकाश में उड़ सके किन्तु उन्हें भी सफलता न मिली। इसके बाद जर्मनी, इंगलैण्ड तथा फ्रांस के वैज्ञानिक इस दिशा में प्रयत्न करते रहे, किन्तु 1908 ई0 में सफलता चरण चूम सकी अमेरिका के ओरिविल राइट तथा विलवर राइट नामक दो भाइयों के। तबसे तरह-तरह के विमान बने। सन् 1916 ई. में इंगलैण्ड के बेनन ने हैलीकॉप्टर का आविष्कार किया जिसके लिए बहुत बड़े मैदान की जरूरत नहीं, एक चौकी-भर जमीन काफी है।

वायुयान की आकृति चील-जैसी होती है। लकड़ी और एल्युमिनियम इसके निर्माण के प्रमुख उपकरण हैं। इसमें प्रायः दो इंजन रहते हैं। इसमें दो से छह तक पंखे लगे रहते हैं। इसके नीचे दो पहिय होते हैं। उड़ने के पहले वायुयान इन्हीं के सहारे फुदकता है। पेट्रोल इसका भोजन है। विमानचालक आगे बैठता है। दो से लेकर सौ-डेढ़ सौ व्यक्ति तक इसमें सवार होते हैं। वायुयान कई प्रकार के होते हैं। जैसे


1. प्रशिक्षण-वायुयान, 

2. लड़ाकू वायुयान, 

3. परिवहन-वायुयान, 

4. बमवर्षक वायुयान, 

5. टोह लगानेवाला वायुयान, 

6. अतिरिक्त वायुयान।


वायुयान भारत में पहले नहीं बनते थे। किन्तु अब बंगलोर में 'हिन्दुस्तान ऐरोनाटिक्स लिमिटेड' की स्थापना हो गयी है। यहीं 'मारुत' नामक पराध्वनिक (सुपरसोनिक) विमान भी बन चुका है। हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स की शाखाएँ नासिक, कोरापुत तथा हैदराबाद में स्थापित हो चुकी हैं। विमान के ढाँचे नासिक में, इंजन कोरापुत तथा विद्युत्-उपकरण हैदराबाद में तैयार हो रहे हैं। अब भी हम अच्छे विमानों के लिए अमेरिका और रूस का मुँह जोह रहे हैं। हम उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब हर व्यवहार-प्रकार के वायुयानों का निर्माण कर निर्यात कर सकें।

वायुयान के आविष्कार ने मनुष्य की सुख-सुविधाओं के अनन्त द्वार खोल दिये हैं। इसने दूरी की समस्या हल कर डाली है। रेलगाड़ी से जहाँ घंटे में बीस-तीस मील जा सकते हैं, वहाँ वायुयान से प्रतिघंटे सौ मील से साढ़े सात सौ मील की यात्रा कर सकते हैं। हजार मील तथा उससे भी अधिक गति से चलनेवाले वायुयान अब निर्मित हो रहे हैं। वह समय दूर नहीं, जब किसी दूर-से-दूर दो देशों की राजधानियों का फासला हम केवल कुछ घंटे में तय कर सकेंगे। वायुयान की कृपा से रांची में जलपान और दिल्ली में भोजन तो आज भी हो रहा है।

वायुयान के कारण विशाल विश्व एक छोटा-सा नगर बन गया है। एक देश के नेता दूसरे देश के नेताओं से मिलकर विश्व की समस्याओं का समाधान निकालते हैं। वैज्ञानिक, साहित्यकार एवं कलाकार अपने ज्ञान का प्रसार करते हैं। बड़े-बड़े चिकित्सकों को बुलाकर हम रुग्णों की चिकित्सा करा सकते हैं। अकाल और सूखे में दम तोड़ते लोगों के सामने अन्न पहुँचा सकते हैं। दुर्गम घाटियों में प्राण गवाते राष्ट्र के रक्षकों के बीच रसद पहुँचा सकते हैं। भयानक दुर्घटनाओं से पीड़ित व्यक्ति को संकट से उबार सकते हैं। वायुयान की सहायता से संसार के ताजा-से-ताजा समाचारपत्र हम पढ़ सकते हैं; लन्दन, न्यूयार्क, फ्रैंकफर्ट में शिक्षा पानेवाले सगे-सम्बन्धियों का कुशल-क्षेम प्राप्त कर सकते हैं; मुजफरपुर की लीची और दीघा का मालदह आस्ट्रेलिया पहुँचा सकते हैं और सिंगापुर का केला नागपुर। इस प्रकार, स्थान और समय पर वायुयान ने सचमुच अपनी विजय-पताका फहरा दी है।

किन्तु, इससे भय भी है। जब वायुयान पर चढ़कर गर्म मुट्ठियों से गोलो की वर्षा कर लहलहाते बागों को हम वीरान बनाते हैं तथा परमात्मा की सुन्दरतुम सृष्टि का असमय विनाश करते हैं, तब बड़ा कष्ट होता है। क्या इसमें सिर्फ वायुयान का दोष है? नहीं, नहीं; यह तो विज्ञान और मानवता के दुश्मनों के काले हृदयों का काला कारनामा है।