रेलगाड़ी 
Rail Gadi


धुआँ उड़ाती, धक-धक-छक-छक करती, हॉफती रेलगाड़ी से आज कौन परिचित नहीं ? सारे देश में जाल-से फैले रेल-मार्गों पर दौड़ती रेलगाड़ी देशवासियों को एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाती है। रेलगाड़ी ऐसी विस्मयकारी वैज्ञानिक उपलब्धि है, जो भिन्न भाषा, भिन्न धर्म और भिन्न संस्कृति वाले व्यक्तियों का संगम कराती है। कभी आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत को एक सूत्र में बाँधने के लिए देश के चारों कोनों पर चार मठ स्थापित किये थे। आज देश के कोने-कोने पर बने 6,854 रेलवे स्टेशन इसे एक मजबूत रस्से में बाँधनेवाले खूटे बन गये हैं।

इंगलैण्ड के जेम्स वाट ने 1765 ई0 में भाप के इंजन का आविष्कार किया। इस अनुसन्धान को जॉर्ज स्टीफेन्सन ने आगे बढ़ाया। 1825 ई0 के 27 सितम्बर को उन्होंने भाप इंजन से चलनेवाली ऐसी गाड़ी का उद्घाटन किया जो 12 मील प्रतिघंटे की गति से 38 डल्चों को खींच सकती थी। 1830 ई. में विश्व में प्रथम बार इंगलैण्ड में मैनचेस्टर से लिवरपुल तक 31 मील लम्बे रेल-पथ पर रेलगाड़ी चलायी गयी। भारतवर्ष में सर्वप्रथम गवर्नर-जेनरल लॉर्ड डलहौजीके समय 16 अप्रैल, 1853ई. में रेल-पथ का निर्माण हुआ। बम्बई से थाना के बीच 32 किलोमीटर लम्बे रेल-पथ पर पहली बार हमारे देश में रेलगाड़ी चली। तबसे आज तक लाखों मील रेल-पथ बन चुके हैं, जिनपर लोग यात्रा कर रहे है। अगस्त, 1949 ई0 के पहले भारतवर्ष में रेल के 37 क्षेत्र थे, किन्तु अब इन्हें केवल 5 क्षेत्रों में बाँटा गया है। ये है-दक्षिण-क्षेत्र, मध्य-क्षेत्र, पश्चिम-क्षेत्र, उत्तर-क्षेत्र, उत्तर-पूर्व-क्षेत्र, पूर्व-क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व-क्षेत्र, उत्तर-पूर्व सीमान्त-क्षेत्र तथा दक्षिण-मध्य-क्षेत्र। इन्हीं क्षेत्रों के आधार पर उत्तर-रेलवे, पूर्व रेलवे आदि नाम रखे गये है।

रेलगाड़ी कई प्रकार की होती है—यात्रीगाड़ी (पैसेंजरगाड़ी), द्रुत या एक्सप्रेसगाड़ी, डाकगाड़ी (मेल ट्रेन) तथा मालगाड़ी (गुड्स ट्रेन)। यात्रीगाड़ी, द्रुतगाड़ी तथा डाकगाड़ी यात्रियों को ले चलती है और मालगाड़ी माल-असबाब ढोती है। रेलगाड़ी में कई बोगियाँ रहती हैं-हर बोगी में कई डिब्बे होते हैं। रेलगाड़ी में कई श्रेणियाँ रहती हैं-द्वितीय, प्रथम, शायिका तथा वातानुकूलित। सुविधापूर्वक यात्रा करने के लिए स्थान (सीट) अथवा शायिका (बर्थ) का आरक्षण कराना पड़ता है। रेलगाड़ी में आगे इंजन रहता है जिसमें चालक रहते हैं, पीछे गार्ड का डब्बा रहता है, जिसमें रेलगाड़ी का संरक्षक रहता है। इसमें कई टिकट-चेकर रहते हैं, जो टिकट की जाँच करते हैं। पैसेंजरगाड़ी हर स्टेशन पर रुकती है जबकि द्रुत और डाक गाड़ियाँ बड़े-बड़े स्टेशनों और जंक्शनों पर ही रुकती हैं। लम्बी यात्रा तय करनेवाली गाड़ियों में केवल शयन का ही नहीं, भोजन का भी प्रबन्ध रहता है-विदेशों में तो मनोरंजन की भी सुविधा रहती है। रेलगाड़ी समतल भूमि पर तो चलती ही है, यह ऊँची पहाड़ियों पर भी घूमघुमौवे पथ से या रजुमार्ग पर लटकती हुई चलने लगी है। इतना ही नहीं, अब यह भूमि के भीतर भी चलने लगी है। इंगलैण्ड में टेम्स नदी के नीचे गाड़ी चलती है। इधर इंगलैण्ड और फ्रांस को ब्रिटिश चैनल के नीचे से रेलवे द्वारा जोड़ने की योजना बन रही है तथा हमारे देश में भी कलकत्ता में हुगली नदी के नीचे से रेलगाड़ी चलने लगी है।

सात घोड़े के रथ पर सवार होकर सूर्यदेव उदयाचल से अस्ताचल की यात्रा करते रहते हैं। सात सौ घोड़ोंवाले शक्तिशाली इंजन से खींची जानेवाली रेलगाड़ी पर सवार होकर सैकड़ों नर-नारी आज संसार की यात्रा कर रहे हैं। एक समय था, जब यात्रा अत्यन्त कष्टप्रद और समयसाध्य थी, किन्तु अब चाहें तो बंगोपसागर के क्रोडस्थित कलकत्ते से लगभग 40 घंटे में अरबसागर की बाँहों में सिमटी बम्बई पहुँच सकते हैं, महज सौ घंटे में कन्याकुमारी से हरिद्वार का चक्कर लगा सकते हैं। रेलगाड़ी ने अध्ययन, ज्ञानवर्धन, देश-दर्शन, प्रकृति-पर्यवेक्षण, स्वास्थ्यलाभ, जीविकोपार्जन, देश-सुरक्षा, दुर्भिक्ष-समापन, वस्तु-सुलभता, आयात-निर्यात की सुविधा इत्यादि क्षेत्रों में इतनी सहायता पहुँचायी है कि इसका वर्णन सम्भव नहीं है, अनुभव करना ही अलम् है।

यह ठीक है कि तेज रेलगाड़ियों के कारण दुर्घटनाओं में मनुष्य की जान जाती है, किन्तु लाभ के अनुपात में यह हानि महत्त्वहीन है। आखिर भूमि जितनी उपज जो निवास के लिए आवश्यक है, यातायात के लिए भी तो उतनी ही! फिर रेल-दुर्घटनाओं की क्या बात, जीवन की किस यात्रा में चूक और दुर्घटना नहीं होती। चूक या दुर्घटना के भय से क्या हम जीवन-यात्रा के मार्ग ही छोड़ दें ? उचित तो यही है कि हमें उन्नति और प्रगति का कोई वैज्ञानिक मार्ग नहीं छोड़ना है। हाँ, चूक और दुर्घटनाओं की समाप्ति का हल अवश्य कर लेना है। हम तो वैसे दिन की प्रतीक्षा में हैं, जब तेज-से-तेज रेलगाड़ियाँ सारे संसार को एक श्रृंखला में बाँध दें, डीजल, कोयले से निकली भाप से न चलकर केवल गैस या बिजली या फिर अणु-ईंधन से चलनेवाली रेलगाड़ियाँ एक लघु इन्द्रनगर-सी चलती-फिरती दृष्टिगोचर हों। कभी चाँदनी रात में, कभी रिमझिम बरसात में, कभी हिमधौत शिखरों का सौन्दर्य निहारते, कभी मदमाती नदियों को झलकाती सूर्य-किरणों का दृश्य देखते हम जो रेलगाड़ी की यात्रा करते हैं, उससे केवल हमारी आवश्यकता की ही पूर्ति नहीं होती, वरन् आन्तरिक तृप्ति भी होती है।