चलचित्र 
Chalchitra


नगर का एक कोना, जहाँ विशाल भवन खड़ा है। जिसपर बड़े-बड़े पोस्टर टैंगे है; अनेक दिशाओं से आती सवारियाँ जिधर हाँफती चली जा रही हैं, पैदल चलने वाले जहाँ भीड़ को चीरते हुए बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं, जहाँ नुकड़ों पर कुछ कानाफूसी हो रही है, जहाँ खिड़की पर लम्बा क्यू है, क्यू को तोड़ डालने के लिए जहाँ हुल्लड़ मचा है, आदमियों के माथे पर आदमी रेंगता हुआ 'कबड्डी' का पाला छूने की तरह जहाँ जोर मार रहा है, समझिए वहीं कोई-न-कोई चलचित्र-भवन-सिनेमाघर है। वहीं आप बिना कैलेण्डर देखे अनुमान कर सकते हैं कि आज शुक्रवार है। कोई नयी फिल्म अवश्य आयी है जिसके लिए इतनी बेचैनी छायी है।

जैसे मादक द्रव्यों का नशा होता है, वैसे ही कुछ लोगों को सिनेमा का भी नशा होता है। वे चाहे जैसी भी फिल्म क्यों न हो, पहले दिन पहला शो अवश्य देखेंगे। चाहे इसके लिए उन्हें सर फोड़वाना पड़े, भूखा रहना पड़े, झूठ बोलना पड़े, जेब कतरनी पड़े; किन्तु वे सिनेमा देखने से बाज नहीं आयेंगे। जितनी भद्दी और अश्लील फिल्म रहेगी, उसके दर्शकों की संख्या उतनी ही अधिक होगी।

अन्य भाषाओं की फिल्मों की बात नहीं मालूम, किन्तु हिन्दी-चलचित्रों का स्तर बहुत गिरा हुआ है। फिल्म-निर्माता अपनी फिल्मों को 'बॉक्स-हिट' बनाने के फेर में उन्हें चलते गानों, मसखरों, चुहलबाजियों, शरीर की अश्लील नम्रता और बचकानी भावनाओं की भड़क से भर देते हैं। अब यह हाल हो रहा है कि हम अपने माता-पिता या भाई-बहन के साथ अधिकांश हिन्दी चित्र देखने का साहस नहीं कर पाते। किशोर और किशोरियाँ सिनेमा में देखे गये दृश्यों का चलचित्र भवन के बाहर पुनरभ्यास करते है और अनेक प्रकार के कुकाण्ड करते हैं। नये फैशन के नमूने, प्रेम-व्यापार की नयी-नयी तरकीबें और दीवार फोड़ने के नये-नये रोमांचक कौशल दिखलाये जाते हैं। यहाँ कुवासनाओं का विष फैलता है, चरित्रहीनता के कीटाणु रेंगते हैं तथा कामुकता की पगडंडियों पर भटकना पड़ता है। चित्र तो पूँजीपति ही बनाते हैं, इसलिए वे भीड़ जुटाकर पूँजी बटोरने की लालसा से फिल्म बनाते हैं, न कि कला के निखार की दृष्टि से। उनके पैसे सेंसर की कैंची भी नहीं चलने देते और परिणाम होता है कि आज भारतवर्ष की गलियों, चौराहों और नुक्कड़ों पर नानगृह के नम दृश्य तथा नायक-नायिकाओं के चुम्बन-परिरम्भण के चित्र चिपके हुए हैं तथा राम-कृष्ण-बुद्ध-गाँधी के स्थान पर वे प्रातःस्मरणीय एवं नित्यदर्शनीय हो गये हैं।

चलचित्रों ने हमारे मानसिक, नैतिक एवं चारित्रिक स्तर को तो गिराया ही है, साथ-ही-साथ हमारे नाटक, नृत्य, रामलीला, यात्रा, शास्त्रीय गायन इत्यादि वास्तविक कला पर कल्पनातीत आघात भी किया है। नाटक आदि कलाओं और उनके कलाकारों की क्षति, उनके प्रति जनरुचि घटने का प्रमुख कारण राष्ट्रीय नीति का अभाव भी है। चलचित्र पर जो मनोरंजन कर है, वही नाटकादि प्रदर्शनों पर भी है। चलचित्र केवल मशीन के द्वारा नाटक की मुद्रित छवि दिखाता है, जबकि नाटक के लिए सारे पात्रों को सशरीर रंगभूमि में लाना पड़ता है। ऐसी हालत में कर दे देने पर कलाकारों के भरण-पोषण-योग्य आजीविका नाटक नहीं जुटा पाता। योग्य कलाकारों के लिए तो यह अलाभकर वृत्ति ही है। अतः यह आवश्यक है कि नाटक को करों से मुक्त किया जाय।

चलचित्र से केवल हमारा मनोरंजन ही नहीं होता, इसके द्वारा शिक्षा एवं ज्ञान का संवर्द्धन भी होता है। हम सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चित्रों का निर्माण कर जनमानस का परिष्कार एवं उन्नयन कर सकते हैं। हम वृत्तचित्रों या पूरी लम्बाईवाले चित्रों द्वारा विश्व के रंगमंच पर घटनेवाली घटनाओं का प्रत्यक्ष दृश्य रजतपट पर दिखला सकते हैं। घर बैठे आस्ट्रेलिया में होनेवाले टेस्ट-मैच, अमेरिका के चुनाव, वियतनाम के युद्ध, ताशकन्द-वार्ता, कश्मीर या स्विट्जरलैण्ड के दृश्य, न्याया-जलप्रपात, धुवों के हिमप्रदेश इत्यादि के दृश्य देख सकते हैं और आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। कारीगरी, यांत्रिकी, शल्यचिकित्सा, साहसिक यात्रा, अनुसन्धान इत्यादि की उच्चतुम शिक्षा तक चलचित्र द्वारा सरलता से दी जा सकती है। अब तो चलचित्रों में और भी सुधार हुआ है। सिनेमास्कोप तथा तीन आयामवाले चलचित्र भी दिखाये जाने लगे हैं।

अतः आवश्यक है कि चलचित्रों का सदुपयोग किया जाय। इनके निर्माण द्वारा केवल आर्थिक लाभ पर ही ध्यान न रखकर शैक्षणिक प्रगति, सांस्कृतिक निर्माण एवं चारित्रिक विकास पर भी पूरा ध्यान दिया जाय।