बाढ़ का दृश्य 
Badh ka Drishya

बाढ़ का अर्थ है जलप्लावन, अर्थात् जब जल मर्यादा में नहीं रहता, मर्यादा तोड़कर कछारों के ऊपर से अतिवेग में बह निकलता है। यह प्रकृति-रानी का कुटिल भू-संचालन है, जिसके कारण जल जीवन का पर्याय नहीं रहता, वरन् मरण का उपकरण बन जाता है।

जब गर्मी अपनी जवानी पर रहती है, तो उसके ताप से हिमपिण्ड पिघलकर द्रुतगति से बह निकलते हैं। अत्यधिक वर्षा होने पर तो नदी में अँटाव के बाहर जल आ जाता है। नदियों में जब बहुत जलराशि आ जाती है, तो फिर कल-कछारों को तोड़ती, तटों को डुबोती जलधारा चारों ओर बहने लगती है और लगता है जैसे समुद्र ही चारों ओर लहरा रहा है; जिधर देखिए, उधर पानी, केवल पानी ! महाप्राण निराला के शब्दों में-

शत पूर्णावर्त तरंग-भंग उठते पहाड़,

जल राशि, राशि जल पर चढता, खाता पछाड़। 

जल का यह दृश्य हमें प्रलय की याद दिलाने लगता है मानो सारी सष्टि जलमग्न हो गयी हो और एक अकेला मन बच रहा हो। यह देखकर हम त्राहि-त्राहि करन लगते हैं। ऐसी घड़ी में हमें किसी अगस्त्य की याद आती है, जो चुल्लुओं में सारा जल पी ले या किसी गोपसखा कृष्ण की स्मृति हो उठती है, जो अपनी छिगुनी पर गोवर्धन उठाकर इस जलप्लावन के मध्य छाते के नीचे एक ऐसा सुरक्षित द्वीप स्थापना कर दे, जिसपर लोग रहकर अपने प्राणों की रक्षा कर सकें।

जब बाढ़ दिन में आती है, तब लोगों को सतर्क होने का अवसर मिल जाता किन्तु जब वह चुपके-चुपके किसी सूचना या विज्ञापन के बिना रात के धुंधलक आती है, तब सचमुच हमारे सर्वनाश का सारा सरंजाम तैयार कर देती है। फैलाये व्याल-सी उत्ताल तरंगें मानो सब-कुछ लील लेना चाहती हों। जिधर उधर ही 'जो जैसे तैसे उठि धावा, बालवद्ध कोउ संग न लावा' की स्थिति का स्थिति व्याप्त हो जाती है। अबोध बच्चों एवं अबलाओं के क्रन्दन-रुदन से दिग्दिगन्त काँपने लगता है। मालजाल कुकुरमुत्ते-से बहने लगते हैं। छोटी-छोटी झोंपड़ियों की बात को बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ ध्वस्त हो जाती है। चूहे-बिल्लियों की बात कौन कहे, बड़े-बड़े गजराज भी बहते नजर आते हैं। भाण्डारों में सुरक्षित अन्न की बात कौन कहे, लहलहाती सुनहली फसलें नष्ट हो जाती हैं। और, जिधर देखिए उधर 'हाय अन्न, हाय अन्न' की गुहार मच जाती है। सचमुच, बाढ़ प्रकृति की विकरालता तथा निष्ठुरता की बड़ी ही दर्दनाक कहानी है। जो चीन की हांगहो तथा अपने देश की कोशी नदी के बाढ़ के भुक्तभोगी हैं, वे ही बाढ़ की दानवी लीला का यथार्थ विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

बाढ़ से अपार हानियाँ हैं। संचित अन्न तथा उत्पाद्य अन्न के नष्ट होने से अकाल का ताण्डव-नृत्य आरम्भ हो जाता है। घरों के नष्ट होने से आवास की कठिनाई हो जाती है। भयानक जलप्लावन में तैरती सड़ी-गली लाशों की दुर्गन्ध से महामारी फैलने की आशंका होने लगती है। इस प्रकार अकाल, आवासहीनता तथा बीमारी-यह त्रिदोष घेर लेता है और इससे उबरना बड़ा ही कठिन हो जाता है। सरकार की सारी विकास-योजनाएँ ठप पड़ जाती हैं और सारे संसार के समक्ष उसे अपनी भिक्षा की झोली फैलानी पड़ती है। इतना ही नहीं, कल के राजा आज के रंक हो जाते हैं। कहीं तो जमीन ही नदी के पेट में समा जाती है, कहीं उपजाऊ मिट्टी की छाती पर बालू का पहाड़ खड़ा हो जाता है। ऐसे विरले ही भाग्यवान हैं, जिनकी बलुआही भूमि पर सोना उगलनेवाली मिट्टी जमती हो।

चाहे वह पुराणों के जलप्रलय की कथा हो, चाहे बाइबिल के 'डेल्यूज' या करान के 'तूफान-ए-नूह' की कहानी, उस समय के मानव ने जिस साहस के साथ बाढ़ से निबटकर आज तक नयी सृष्टि चलायी, आज का वैज्ञानिक मानव भी उससे कम साहस और चेष्टा से इसके समाधान के लिए तत्पर नहीं है। वह अब अपनी बद्धि से तटबन्धों, नहरों, जलागारों, जलद्वारों जलावरोधों तथा अन्य दिशा में जल-मुख-परिवर्तन द्वारा कुछ ऐसा कर देना चाहता है कि युग-युग का अभिशाप यदि तत्क्षण वरदान न भी बने, तो कम-से-कम अभिशाप नहीं रह जाय। भाखड़ा-नंगल, कोशी. हीराकार नागार्जनसागर इत्यादि नदीघाटी-योजनाएँ इन्हीं उत्पातों पर मानवीय विजय की चिरस्मरणीय गाथाएँ हैं।