सूखा 
Sukha

सूखा। सूखा !! जिधर देखिए, एक ही आवाज आती है-सूखा । सूख ।।

यह सूखा क्या है ? प्रकृति के प्रकोप का जलता हुआ नमूना। जुआरी मानसून का दगाबाजी का एक अनोखा कारनामा। उसकी सनक, उसकी बहक, उसकी मौज की हरकते-वहशियाना।

किन्तु, जब हम प्रकृति पर विज्ञान की दिग्विजय का डिण्डिम-घोष सुन चुके हैं, प्रकृति के अल्हड़ दूत मानसून को हम अपने नियंत्रण में नहीं ला सकते ? क्या हम आकाश के बादल को विज्ञान की सहायता से अपने इच्छित स्थानों पर बरसा नहीं सकते? क्या हम धरती के पेट में संचित अपरिमित जलराशि बाहर नहीं जा सकते? श्रीराम के राज्य में वारिद इच्छानुसार वारिवर्षण करता था। क्या आज वह विकसित विज्ञान का अनुशासन नहीं मानेगा? क्या हम प्लावन के कारण खंड-प्रता उपस्थित करनेवाली नदियों की अपार जलराशि योजना द्वारा बांधकर, नहरें निकालकर सूखे के समय उपयोग में नहीं ला सकते?

सब कुछ संभव है। लेकिन हमें अपनी सरकार की और अपनी अकर्मण्यता भ्रष्टाचारिता एवं अदूरदर्शिता का जुर्माना तो देना ही पड़ेगा। यदि हम ठीक से अप इतिहास को देखें, तो पता चलेगा कि हमारे देश में बारी-बारी से अतिवृष्टि और अनावष्टि की आँख-मिचौनी चलती रहती है। इसके कारण सरकार को सरदर्द होता ही है, सामान्य जन-जीवन भी हाहाकार से भर जाता है।

1967 ई0 में बिहार में भयानक सूखा पड़ा था। उस समय मंत्रियों ने कहा था कि यह सामयिक शाप शाश्वत वरदान के रूप में आया है। वृहत, मध्यम एवं लघ सिंचाई-योजनाओं द्वारा इस सूखे से सदा के लिए त्राण पाया जा सकता था, किन्तु अधिकांश योजनाएँ सचिवालय की संचिकाओं में भटकती रहीं। कुछ योजनाएं चलायी भी गयीं, किन्तु धन का दुरुपयोग ही हुआ। फिर, 1972 ई0 में भयानक सुखा देश के विभिन्न भागों में पड़ा; किन्तु बिहार उसका सबसे बड़ा शिकार रहा । बिहार में चार लाख एकड़ जमीन में गरमा धान बोया गया था, लेकिन वर्षा और सिंचन-व्यवस्था के अभाव में लगभग सवा दो लाख एकड़ जमीन में गरमा धान की फसल जलकर नष्ट हो गयी। इसी तरह, तीन लाख एकड़ भूमि में भदई धान की खेती होती थी, किन्तु सूखे के कारण लगभग आधी फसल नष्ट हो गयी। सवा लाख एकड़ भूमि में गरमा मकई लगायी गयी थी, किन्तु लगभग एक लाख एकड़ भूमि में गरमा मकई की फसल भी पानी न होने के कारण बर्बाद हो गयी। लगभग बाईस लाख एकड़ भूमि में भदई मकई की खेती होती थी, किन्तु जलाभाव के कारण लगभग पचास प्रतिशत भूमि में भदई मकई की फसल भी नष्ट हो गयी। हमारे यहाँ लगभग ढाई लाख एकड़ जमीन में मँडुआ की खेती होती थी, किन्तु इस सुखाड़ के कारण मड़ए की फसल भी जल गयी। बाद में कहीं-कहीं थोड़ी वर्षा भी हुई किन्तु इससे क्या लाभ हो सकता था-'का वर्षा जब कृषी सखाने ?' इस तरह, केवल बिहार में ही 1972 ई0 में 307 करोड़ रुपयों की फसल नष्ट हो गयी। इस प्रकार, यदि पूर देश पर विचार करें तो देश में सूखे के कारण लगभग 500 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। ऐसा कौन भाग्यशाली साल है, जिसमें यहाँ सखा नहीं पड़ता! सूखे का भयावह प्रकोप 1979 ई0 में भी रहा। 1983 ई0 में भी देश के अनेक भागाम सूखा पड़ा।

भयानक सूखे के कारण देश में अकाल की डरावनी छाया मैंडराने लगती है। गरीब जनता को बुभुक्षा-राक्षसी का ग्रास बनना पड़ता है। भूख और पोषण-तत्व अभाव के कारण लोगों को तरह-तरह की बीमारियों के चंगल में फंसना पड़ा। और पैसे न होने के कारण उन्हें अकालमत्य का हठात वरण करना होता है। आकाश छूने लगती है। सामान्य जनता की क्रय-शक्ति दर्बल हो जाता देश भूख की आग में जल रहा हो, तो अन्य विकास-योजनाओं की ओर ध्यान जाता है? हमें विदेशों के समक्ष अपनी भिक्षा की झोली फैलानी पड़ता फैलानी पड़ती है।

हम कर्ज के लिए मसविदे बनाते हैं और उसके व्याज से ही आनेवाली पीढ़ी के भविष्य पर दीनता की कालिख पोत देते हैं।

जब सूखा पड़ता है, तो देश की बागडोर संभालनेवाले नेताओं की हवाई यात्रा आरंभ हो जाती है। उनके दपोरशंखी वायदे अखबारों में छपने लगते हैं। सभी एक स्वर से कहना आरंभ कर देते हैं कि हम सूखे के कारण उत्पन्न दुःस्थिति का युद्ध-स्तर पर मुकाबला करने को तैयार हैं। हम देश में किसी को भी भूख से दम तोड़ने नहीं देंगे। तरह-तरह की राहत-योजनाएँ चलाने की बातें की जाती हैं। सिंचाई की सुदृढ़ व्यवस्था करने की बात कही जाती है। पर, नेतागण कुंभकर्ण-नींद में सो जाते हैं। भ्रष्टाचारी अधिकारीगण उन योजनाओं के कार्यान्वयन का भार उनपर सौंप देते हैं, जो उन्हें रिश्वत या कमीशन के नाम पर मोटी रकम नैवेद्य के रूप में प्रदान कर सकें। और, सूखे की स्थिति समाप्त होते-होते सारे वायदे हवा में कपूर की तरह उड़ जाते हैं। सारी योजनाएँ कच्छप-गति से चलने लगती हैं।

भारत प्राकृतिक दृष्टि से बड़ा ही सम्पन्न देश है। यहाँ कृषियोग्य पर्याप्त उर्वर भूमि है। यहाँ की वसुन्धरा सचमुच वसुन्धरा है। किन्तु यहाँ की धरित्री पर सुख-सम्पदा का स्वर्ग तभी उतारा जा सकता है, जब हम इसे प्रकति के कर भकटि-विलास । न छोड़ दें। इसके लिए जरूरी है कि हमारी सरकार नदी-घाटी-योजनाओं, सरकारी नलकूपों, अनुदानप्राप्त वैयक्तिक नलकूपों तथा कओं द्वारा सिंचन का ऐसा जाल बिछा दे कि हर खेत के हर इंच में सालोभर पानी पहुँचाया जा सके। हमारे देश ने विदेशों से अन्न मँगाने में अभी तक जितने रुपये खर्च किये हैं उतने में हम इस समस्या का समाधान कर चुके होते। यह देश अन्न के मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं होता, वरन् विश्व के अन्य कम अन्न उपजानेवाले देशों को अन्नदान भी करता। किन्तु, कोई बात नहीं। जब जग जायें, तभी सवेरा मानना चाहिए। हम आशा करते हैं कि सरकार और जनसहयोग से निकट भविष्य में देश में सिंचाई की व्यवस्था की जाएगी तथा वैज्ञानिक साधनों द्वारा बादल को इच्छित स्थानों पर बरसाकर भारत की धरती से सूखे का अभिशाप सदा के लिए भगाया जा सकेगा।