बागबानी 
Bagbani

ऐसा कौन होगा जो बाग का नाम सुनते ही बाग-बाग न हो जाय । मनुष्य कितना भी थका-माँदा क्यों न हो, वह कितना भी उदास-निराश क्यों न हो, यदि वह फूलों की उस दुनिया में आ जाय जहाँ रूपसी तितलियाँ रंगों का इन्द्रधनुष लुटाती हैं, मदमाते रसलोभी भौरे जहाँ अपने मधर गंजार का उपहार देते हैं, तो उसे अद्भुत शान्ति मिलती है, एक अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है। किन्तु, ऐसे विरले होंगे, जो इन फूलों के पौधों की जड़ में जमी हुई घास-फूस साफ कर सँवार दें, फूलों के लघु पादपों के थालों में थोड़ा पानी देकर उनकी प्यास बुझा दें।

फूल-फलों की सेवा-सुरक्षा का नाम ही बागवानी है। वे सचमुच हमारे आदर के पात्र हैं, जो अपने समय का सदुपयोग फुलवारी लगाने में करते हैं।

अपने घर के आसपास थोड़ी-सी वैसी जमीन में-जिसमें हम कूड़ा-करकट। करते हैं, बिलकुल गन्दा रखते हैं-अगर हम फूलों के पौधे लगा दें, तो वातावरण गन्धमय हो उठे। एक ओर चमन का राजा गुलाब खिला हो, तो दूसरी ओर चमन की रानी केतकी गन्ध लुटा रही हो। कहीं बेला की बहार हो, तो कहीं मोतिये का निखार। इधर गेंदा गदराया हुआ हो, उधर हरसिंगार सुबह-सुबह मस्ताया। कहीं डहलिया हो, तो कहीं स्वीट पी, कहीं क्रिसेंथिमम विद्यमान हो, तो कहीं होलीहॉक। किनारे-किनारे क्रोटन भाँगड़ा-नृत्य की मुद्रा में चल पड़ने को उतावले-से खड़े हो।

जब ये फूल खिलखिलाकर सुगन्धि वितरित करते हैं, तो भौरे मँडराकर रस लेना चाहते हैं। इसे देखकर मनुष्य के प्राण भी मधुसंचय के लिए आकुल-आतुर हो उठते है। लगता है, इन फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी पर परमात्मा का दिव्य स्वरूप अंकित है। इनपर बिखरे ओसकणों में जैसे उसकी करुणा की कहानी छिपी है; फूलों की एक-एक कली जैसे उसके निःस्वार्थ प्रेम की अमर शब्दावली है।

बागबानी में राग-बिरंगे फूलों का ही नहीं, तरह-तरह के फलों के वृक्षों का भी रोपण कर हम उनसे नेत्रसुख ही नहीं लेते, नासिका गन्धपूरित ही नहीं करते, पक्षियों का कलरव ही नहीं सुनते, हृदय प्रफुल्लित ही नहीं करते, वरन् तरह-तरह के फल प्राप्त कर क्षुधा की शान्ति तथा अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी करते हैं। शरीर धर्म का पहला साधन है-'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' और इसके लिए फलों के उपयोग से बढ़कर और कुछ है ही नहीं। ऋषि-मुनियों से लेकर अत्याधुनिक चिकित्सक तक फल-महिमा से परिचित हैं। अतः हम अपनी वाटिका में अंगूर, आम, अमरूद, अनन्नास, नाशपाती, नारंगी, नींबू, सेब, स्ट्रॉबेरी इत्यादि तरह-तरह के फल-वृक्ष लगाकर नित्य नये फलों का आहार कर सकते हैं। इन अमृत फलों की प्राप्ति के लिए बस थोड़ी-सी सतर्कता, श्रम और समय की आवश्यकता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ये पौधे मनुष्य द्वारा छोड़ी गयी दूषित नत्रजन गैस ग्रहण कर लेते हैं और ओसजन नामक प्राणद गैस छोड़ते हैं। यदि मनुष्य शुद्ध

ओसजन न प्राप्त करे, तो उसका जीवनधारण सम्भव नहीं। अतः बागबानी के शोक से हम आत्मरक्षा का कवच तैयार कर लेते हैं। सुन्दर स्वास्थ्य के लिए शारीरिक श्रम भी आवश्यक है। बागबानी में हमें जो शारीरिक श्रम करना पड़ता है, उससे हमारा स्वास्थ्य उत्तुम रहता है।

फिर बागबानी से ही हमें पीढ़ा-कुर्सी, हल-गाड़ी, चौखट-किवाड़ की लकड़ी और जलावन का ईंधन मिलता है। इनके अलावा, बाग के पेड़ हमें छाँह और कि देते हैं।

इस प्रकार, बागवानी से हम अनेक प्रकार से सुख और लाभ प्राप्त करत वनस्पतिविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पेड़-पौधों में भी प्राण हैं। मनुष्य तरह वे भी जीवन धारण करते हैं, जन्म लेते हैं, प्यार करते हैं, जवान होत होते हैं और मर जाते हैं। अतः हमारे सामने जब कोई फूल एक पंखुड़ी भी तोड़ लेता है, तो लगता है कि हमारी उँगली ही किसी ने मरोड़ दी; एक डाल तोड़ तो लगता है जैसे किसी ने हमारी बाँह ही तोड़ दी; पौधा उखाड़ लिया, तो लगता है कि हमारी गर्दन पर ही किसी ने छुरी चला दी। जब बगिया में एक फूल खिल उठता है, तो लगता है, हमारे अरमान ही खिले हैं; जब एक फल लगता है, तो लगता है घर मे एक नये शिशु का ही आगमन हुआ है। यही कारण है कि हमारे धर्मशास्त्रों ने पेड़ों को हमारी सन्तान कहा है और पेड़ लगाने के लाभ की तुलना सन्तानप्राप्ति के लाभ से की है। .

इस प्रकार, बागबानी प्रकृति और मानव के प्रगाढ़ सम्बन्ध की अमिट कथा है। यदि हमारी ललनाएँ मर्यादा का झूठा नकाब उतारकर फलों को सींच सके, यदि हम अपने बाग में फल के पेड़ लगा-पाल सकें, तो प्रभु स्वयं हमारे निकट आएगा। वह मनुष्य कितना बड़भागी है, जिसके बाग राजा जनक के बाग-जैसे हैं, जिसे देखकर वसंतऋत् भी लुब्ध हो जाती थी

भूप बाग बड़ देखहुँ जाई।

जहँ बसंत ऋतु रही लुभाई ।। 

वस्तुतः, यह पृथ्वी हमारे लिए नन्दनकानन बन जाय, यदि हम वाटिकाओ के, बागबानी के प्रेमी हो जायें।