बाजार का दृश्य 
Bazar ka Drishya 

नगरों में बड़ी-बड़ी दूकानों की कतारें रहती हैं, जिनमें तरह-तरह के सामान मिलते हैं किन्तु गाँवों में छोटी-छोटी दूकानें भी कम ही रहती हैं। इन दुकानों से गाँववालों की सीमित आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं हो पाती। यदि गाँवों से नगरों की दूरी कम है, तब ग्रामीण अपने निकटस्थ नगरों से सामान खरीदते हैं, मनोरंजन भी करते हैं। किन्तु, जो गाँव नगरों से दूर, यातायात के साधनों से शून्य रहते हैं, उनके लिए हाट की बड़ी आवश्यकता है। वैसे, जमशेदपुर-जैसे आधुनिक नगरों में भी हाटे लगती हैं, जहाँ सुदूर देहात से लोग फल-सब्जी आदि ले आते हैं और बेचते हैं।

हाट में बड़ी चहलपहल रहती है। इसमें बड़े-बड़े सफेदपोश व्यापारी नहीं रहते, बल्कि छोटे-छोटे गरीब व्यक्ति होते हैं, जो अपनी उपज की वस्तुएं, मामूली मिठाइयाँ, मनिहारी की सस्ती सामग्रियाँ बेचने के लिए आते हैं। इसमें नागरिक दूकानों की न तो सजावट रहती है, न सफाई; न मरकरी ट्यूबों की चकाचौंध, न विक्रेताओं की जेबकतरा मुस्कानें; न स्वागत के लिए मीठी बातों की फुलझड़ियाँ। बेचनेवाले साधारण किसान, कारीगर और व्यापारी होते हैं, जो मैले-कुचैले कपड़ों में रहते हैं। उनके साथ 'एक दाम' वाला नियम नहीं, वरन् मोल-मोलाई भी खूब चलती है।

जिधर देखिए, झंड-के-झंड बच्चे, जवान और बूढ़े अपने काम की वस्तुओं पर टूट रहे हैं। महज कुछ घंटों का बाजार अपनी चमक-दमक, शोरगुल में निराला है। हाट मानो बनजारिन या पहाडिन युवती है, जिसके साज-श्रृंगार में आधुनिकता की गन्ध नहीं, बनाव-दिखाव की कोई ललक नहीं। यह थोड़ी देर के लिए हमें मोहती है और जब हम विदा लेते हैं तो एक अवसाद, एक शून्यता हममें भर जाती है; बरात विदा होने के बाद या जुलूस गुजर जाने के बाद की उदासी हमारे मन-प्राणों पर छा जाती है।

हाट के लिए पके मकानों की व्यवस्था सर्वत्र नहीं रहती। फूस के छप्परों खपड़ापोश दालानों या खुले आसमान के नीचे का यह क्रय-विक्रयस्थल कभी-कभी प्रकृति की क्रूरता का शिकार भी बनता है। फिर भी, इसका अभाव, यह सादगी-बेचारगी ही इसका सौन्दर्य है।

यहाँ फ्रिज में रखी हुई बासी चीजें न मिलेंगी; न 'एस्प्रेसो कॉफी' की बहार है, न थम्स-अप की कतार। यहाँ मौसमी ताजा चीजें मिलती रहती हैं-कभी गन्ने का रस, तो कभी डाभ का पानी। नींब मिला शरबत गर्मी में मिल जाएगा। इधर देखिए बन्दर का नाच हो रहा है; उधर सँपेरा किसी नागिन का तमाशा दिखा रहा है। गांवों के छैल छबीले कहीं बीड़ी सोंट रहे हैं, तो बूढ़े किसी किनारे चिलम-चौकड़ी जमा रहे. है।

थोड़ी देर के लिए हाट में मस्ती का आलम छाया रहता है। जीवन की एक-रसता समाप्त करने के लिए बड़े-बड़े बाजारों में रकम की जरूरत पड़ती है, किन्तु गाँवों के साधारण लोगों के लिए हाट आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन हैं और मनोरंजन के स्थान भी।