चाँदनी रात
Chandni Raat
रम्य रजनी का मनोरम श्रृंगार-चाँदनी रात ! मौन की निश्चल परिधि में ज्योत्स्ना की नव छवियों का एकत्रीकरण-चाँदनी रात ! नक्षत्रों के लोक से बरस रही शभ्रता का अनुपम विस्तार-चाँदनी रात | निपट अंधकारभरी रातों की परिसमाप्ति के अनन्तर इसका फैलाव भला किम्मे आह्लादित नहीं कर देता है। प्रकृति की गोद में इसकी यात्राएँ भला कौन भूल सकता है ? नौका-विहार हो या पर्वतारोहण एकाकी परिभ्रमण हो या समूह-पर्यटन, हरियाली की गोद हो या मरुस्थल का सना आँगन-इसकी निराली छटा सबको प्रभावित करती है। इसकी मनोमुग्धकारी छवि का व्यापक प्रभाव सृष्टि के कण-कण पर परिलक्षित होता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपने विश्वविश्रुत महाकाव्य 'रामचरितमानस' में संकेत किया है-'चोरहि चाँदनी रात न भावा', अर्थात् चोर को चाँदनी रात अच्छी नहीं लगती । इसका अर्थ यह नहीं कि जिन लोगों को यह भली नहीं लगती, वे चोर हैं। वास्तविकता यह है कि प्रकृति की रम्य से रम्य छवि भी तभी अच्छी लगती है, जब आपकी मनःस्थिति अच्छी हो। इसके साथ भी यही बात है। मतिराम की एक नायिका को यह सोलहों श्रृंगार से परिपूर्ण दीखती है, जबकि दूसरी नायिका को इसका उजाला। काटने दौड़ता है। संयोग और वियोग, सुख और दुःख की मनःस्थितियों के अनुरूप ही इसकी पहचान होती रही है। सुमित्रानन्दन पंत को प्रकृतिरसिक कोमलकान्त कवि कहा जाता है लेकिन उनके अंतर्मन में कभी अवसाद की घटाएँ छा गयी होंगी, तभी। यह उन्हें प्रमुदित नहीं करती। यह उन्हें कोई हर्षोत्फुल्ल नवयौवन नायिका-सी नहीं। लगी, विलासकला में निपुण कामिनी-सी नहीं लगी, वरन् उसकी तस्वीर उनके मानस में रुग्ण बाला एवं उदास तपस्विनी-सी उभरती है-
'जग के दुःख दैन्य शयन पर
अह रुग्णा जीवन-बाला
रे कबसे जाग रही,
यह आँसू की जीवनमाला।'
चाँदनी रात की शुभ्र ज्योत्स्ना को आँसू की जीवनमाला घोषित करनेवाले कवि प्रवर की मानसिक दशा निश्चय ही विषादग्रस्त रही होगी। शिवमंगल सिह 'समन' को यह मधु अभिलाषाओं से अनुप्राणित प्रतीत होती है, तो इसका कारण उनकी आन्नरिक प्रफुल्लता ही है-
'मृदुहासिनी चिरमधुमासिनी
यौवन की लिये लुनाई
मेरी कल्पित आशा की
बनकर पुनीत परछाई,
आई हो नव सपनों की
आँखों की आकुलता बन
चिर अलस उनदि जग के
प्राणों की व्याकुलता बन ।'
किरणों की पिचकारी से होली खेलनेवाली चाँदनी रात जब-जब मैंने देखी है, निशि के तुमपूर्ण पटल पर प्रकाश-सौरभ बिखेरनेवाली मादकता के रूप में ही इसकी पहचान बनी है। लगता है, मानव के लिए प्रकृति रानी का यह सर्वोत्तुम उपहार है। जब यह आती है तो लगता है कर्पूर का निर्झर बह रहा हो, दुग्ध की धवल-धार हिलोरें ले रही हो, कुन्द की असंख्य कलियाँ बिखर रही हों। झिलमिल कर रहे सितारों से सजी चाँदनी रात विधाता का उन्मुक्त मोहक अट्टहास होती है। आकाश के नीले घूघट से झाँक रही प्रकृति-वधू का प्रभापूर्ण मुखड़ा है यह।
निश्चय ही चाँदनी रात को देखकर मन का कोना-कोना आनन्दातिरेक से भर जाता है। हमारी अंतर्गुफा में आलोक की असंख्य रश्मियाँ इसे निरखकर छिटकने लगती हैं। इस रात की ज्योत्स्ना बहुत-कुछ सन्देश दे जाती है। यह प्रभामयी रात कहती है कि जीवन की अमावस्या से घबराना नहीं चाहिए। अँधेरी डरावनी रात की परिसमाप्ति अवश्यम्भावी है। हर अमावस्या के बाद पूर्णिमा की चाँदनी छिटकती है। सम्पूर्ण मनुष्य-सभ्यता को चाँदनी रात यही संदेश देती है कि अंधकार से घबराकर मानव को कर्त्तव्य-पथ से विमुख नहीं होना चाहिए। आगे बढ़ते जाना मानव-धर्म है, अमावस्या के अनन्तर चाँदनी रात का खिलना प्रकृति का क्रम है।
चाँदनी रात का मनोमुग्धकारी स्वरूप प्रकृति का अनुपम वरदान है। प्राकृतिक सौरभ की यह अनन्य बरसात है जबकि मनुष्य अपनी सारी चिंताएँ-व्यस्तताएँ भूलकर प्रकृति से सीधा सम्पर्क स्थापित कर लेता है। यह एक कररहित आनन्द-प्राप्ति है, यौवन की लुनाई का चरम सुख है और नवजीवन की शीतल छाया का प्रतिबिम्ब है। चाँदनी रात उपेक्षिता धरती पर उतरी नभवासिनी प्रकृति देवी ही तो है ।
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