छात्र-कर्तव्य 
Chatra aur Kartvya 


'छात्र' शब्द का अर्थ है-छत्र की तरह सीलवाला। छत्र अर्थात छाता स्वयं गर्मी और वर्षा में दुख झेलता है, किन्तु दूसरे का सुख पहुंचाता है। इसी प्रकार जो स्वयं कष्ट सहकर समाज, राष्ट्र एवं विश्व का कल्याण करे, उसे छात्र कहेंगे। किन्तु आज 'छात्र' शब्द विद्यार्थी के अर्थ में प्रचलित है।

छात्र का कर्तव्य है कि वह सुयोग्य बनकर माता-पिता की प्रतिष्ठा बढ़ाये। उसका यह भी कर्तव्य है कि अध्ययन में मन रमाये। आगे चलकर वह अपने गुरु से प्राप्त ज्ञानराशि में चक्रवृद्धि करे। 'गुरू' शब्द का अर्थ है, जो अज्ञान का निवारण करता हो अर्थात् जिसने अज्ञान के अन्धकार में ज्ञान की ज्योति फैलायी हो। अतः छात्र को गुरू के प्रति तो अटूट श्रद्धा रखनी ही चाहिए। उसे आरुणि की भाँति गुरु का आज्ञापालक होना चाहिए। जिस गुरू ने एक अक्षर से भी शिष्य का प्रबोध किया, उसके लिए पृथ्वी पर कोई पदार्थ नहीं, जिसे देकर ऋणमुक्त हुआ जा सके। छात्र को कबीर की यह साखी कभी न भूलनी चाहिए-

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमरित की खान।

सीस दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।। 

छात्र विद्यार्जन के क्षेत्र में ही काक-चेष्टा, वकध्यान, श्वाननिद्रा, अल्पाहार तथा गृहत्याग का आदर्श न अपनायें, वरन् समाज-सेवा के लिए भी उन्हें इन व्रतों का पालन करना चाहिए।

आज समाज में फूट एवं वैमनस्य का साम्राज्य हो गया है। दहेज-प्रथा-जैसी अनेक कुरीतियाँ समाज को दीमक की तरह खाये जा रही हैं। यदि छात्र नेतृत्व नहीं लेता, तो समाज का भविष्य अंधकारपूर्ण है। आज हमारी सीमाओं पर पाकिस्तानी और चीनी गिद्ध मँडरा रहे हैं। छात्र इतने स्वस्थ, सबल और अनुशासित हों कि शत्रुओं के अधबढ़े चरण तोड़ दिये जायें।

आज विश्व के सामने अनेक समस्याएँ सुरसा की तरह मुँह खोले खड़ी हैं। सबल राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों को कुचल देना चाहते हैं-कहीं रंग-भेद, कहीं जाति-भेद, कहीं धर्म-भेद की खाई मनुष्यता का मार्ग रोक रही है। अणु-विस्फोट का अजगर हर क्षण प्राणों पर संकट बन छाया है। अतः ऐसी घड़ी में छात्र अपनी शक्ति का दुरुपयोग तोड़ फोड़ में न करें। उन्हें अनुशासित होकर भूली-भटकी दुनिया को नयी राह दिखानी है, नयी मशाल जलानी है।

छात्र समाज के आशा-सुमन हैं, राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं, विश्व के प्रेरणा प्रदीप है; किन्तु उन्हें यह न भूलना चाहिए कि आग में तपकर कनक कुन्दन बनता है। यदि वे स्वयं साधना-अनल में तपेंगे नहीं, तो खरे-सच्चे कैसे बनेंगे? उन्हें तैत्तिरीय पनिषद् की यह अमरवाणी कभी विस्मृत नहीं करनी चाहिए-


सत्यं वद। धर्म चर। स्वाध्यायान्मा प्रमद । 

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव । 

अतिथिदेवो भव।

यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतग्रणि। 


अर्थात्, सच बोलो। धर्म का आचरण करो। स्वाध्याय मे मत चूको। तुम माता को देवरूप समझनेवाले बनो, पिता को देवरूप समझनेवाले होओ। आचार्य को दवरूप समझनेवाले बनो तथा अतिथि को देवतुल्य समझनेवाले होओ। जो-जो दोषरहित कर्म है, उन्हा का तुम्हें सेवन करना चाहिए, दोषयुक्त कार्यों का आचरण कभी नहीं करना चाहिए।