युद्ध और शान्ति 
Yudh Aur Shanti


छीनता हो स्वत्व कोई, और तू 

त्याग, तप से काम ले, यह पाप है। 

पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे 

बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।–दिनकर


मानवजाति का दीर्घपरिसर इतिहास रक्ताक्त युद्धों की एक लम्बी परम्परा से पूर्णतः कलंकित है। नार्वे के एक प्राध्यापक ने गणना-यंत्र की सहायता से बतलाया है कि 1.560 वर्षों के लिखित इतिहास में कुल 14,531 युद्ध हुए। अर्थात, प्रत्येक वर्ष बाई से भी अधिक युद्ध हुए।

चाहे देवासुर संग्राम हो या पाषाणयुग के बर्बर मनुष्यों का युद्ध या आधुनिक साधनों से समलंकृत भीषण युद्ध-मेरी दृष्टि में सभी युद्ध हैं। चाहे उसे आप 'धर्मयुद्ध'-जैसा पवित्र नाम दें या विशेषणशून्य या विशेषणयुक्त 'युद्ध' कहे-कुछ बहुत अन्तर नहीं आता है। भीतर का खूनी पिशाच ही हमें युद्ध के लिए प्रेरित करता है। कविवर दिनकर ने ठीक ही कहा है-


अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो किटकिटा नखों से, दाँतों से 

या लड़ो ऋच्छ के रोमगुच्छपूरित वज्रीकृत हाथों से, 

या चढ़ विमान पर गर्म मुट्ठियों से गोलों की वृष्टि करो, 

ये तो साधन के भेद, किन्तु भावों में भेद नया क्या है? 

झड़ गई पूँछ, रोमान्त झड़े, पशुता का झड़ना बाकी है।

बाहर-बाहर तन सैवर चुका, मन अभी सँवरना बाकी है। 


प्राचीनकाल में जो युद्ध होते थे, उनमें इतना भीषण नरसंहार नहीं होता था; क्योंकि पहले मनुष्य एक-दूसरे से पत्थर, गदा, भाले और धनुष-बाण से लड़ता था। बारूद का आविष्कार होने पर बन्दूकों से लड़ाई होने लगी। बन्दूकों के विकास के साथ मशीनगनों, तोपों और बमों का प्रयोग होने लगा। ध्वनि से भी तेज उड़नेवाले लड़ाकू जेट, कैनबरा तथा मिग जैसे विमान, क्षण में ब्रह्मास्त्र की तरह संहार मचानेवाले अणबम और उजनबम, अवनि से आकाश तक गाज गिरानेवाले गॅकेट, पृथ्वी की छाती के रौंदनेवाले टैंक, वरुण की नगरी में उत्पात करनेवाली पनडुब्बी, जंगी बड़े इत्यादि ने संहार की गति को आश्चर्यजनक रूप से तीव्र कर दिया है। गत द्वितीय महायुद्ध मे अमेरिका ने दो अणुबम हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये और डेढ़ करोड़ व्यक्तियों को क्षणभर में मौत के घाट उतार दिया तथा कितनों को अपाहिज बना दिया। ज्यों-ज्यों समय बीतता है, त्यों-त्यों मारक अस्त्रों का आविष्कार अत्यन्त तेजी से होता जा रहा है। आज 5 हजार मील दूर स्थित नगरों को भी अणुबम-युक्त प्रक्षेपणास्त्रों से अचूक निशाने का शिकार बनाया जा सकता है। अणुबमों द्वारा भयानक बाढ़ और भूकम्प उत्पन्न किये जा सकते हैं और समुद्र से घिरे द्वीपों या तटवर्ती नगरों में जल-प्रलय मचाकर उन्हें नष्ट कर दिया जा सकता है। ऐसे-ऐसे विषों का निर्माण तथा दानर्व कीटाणुओं का विकास किया गया है कि जलाशयों में उन्हें डालकर अपने विरोधिः के लिए मरण उपस्थित कर दिया जा सकता है। ऐसे-ऐसे बम विस्फोट किये जा सकते हैं, जिनसे निकलनेवाले जहरीले कीटाणु मनुष्य को अचिकित्स्य अतिपीड़क व्याधियों का ग्रास बना सकते हैं। संसार की लगभग आधी सम्पत्ति का आज मनुष्यो के विनाश के लिए व्यय हो रहा है। संसार के बड़ेबड़े प्रतिभाशाली सर्जनात्मक कार्य न कर विध्वंसात्मक कार्य में दत्तचित्त हैं।

आखिर मनुष्य क्यों सम्पूर्ण सृष्टि को जीवनशून्य करने का आयोजन कर रहा है? युद्ध में जो लाखों-लाख विधवाएँ अपने पति के लिए बिलखती-विलपती हैं, लाखों बहने जो अपनी राखी लिये रक्षाबन्धन के दिन अपने दुलारे भाइयो की बाट जोहती हैं, लाखों-लाख माँ-बाप जो अपने श्रवणकुमारों के लिए छटपटाते रहते हैं, लाखों-लाल अनाथ शिशु, जो अपने जीवनदाताओं के स्नेह-चुम्बन के लिए तरसते रहते हैं, क्या ये सारे दृश्य मनुष्य को रुलाने-पसीजाने के लिए कम दारुण, कम करुण हैं? जब युद्ध की होली जलती है, तब कला की श्रृंगार-हाट भस्मीभूत हो जाती है, जब भयानक महाभारत छिड़ता है, तब रोने-बिलखने के लिए कुछ द्रौपदियाँ और सुभद्राएँ, वृद्धा गान्धारियाँ एवं कुन्तियाँ ही भंगालों के साथ बच जाती हैं।

वीरगाथाकाल में उत्फुल्ल-राजीव-लोचना के लिए युद्ध होता था। मध्यकाल में पलियाँ अपने पतियों के गौरवदीप्त भाल को कुंकुम-तिलक से सजाकर उन्हें रणांगण में भेजती थी और उनके निहत होने पर जौहर-व्रत मनाती थीं। आज भी उपनिवेशवादी अपने जालिम नापाक पंजों के नीचे सारे संसार को दबोचने के लिए युद्ध करते या उभारते हैं। भारत-पाक-युद्ध, इसरायल-अरब-युद्ध, अमेरिका-वियतनाम-युद्ध-ऐसी अपवित्र अभिलाषाओं के ज्वलन्त दृष्टान्त हैं।

हम युद्ध को जबतक धर्म, राष्ट्रोद्धार, स्वत्वस्थापना, न्याय रक्षा इत्यादि के रेशमी आवरण देते रहेंगे, तबतक युद्ध बन्द नहीं हो सकता। संयुक्त राष्टसंघ की सुरक्षा परिषद् हो या भारत का पचशील--या आज युद्ध के कराल मुख में गिरने से बचाने में कोई पूर्णतः समर्थ नह' हो रहा है गाँधी, कैनेडी, मार्टिन लूथर जैसे महापुरुषों की हत्याएँ और ईसा-बुद्ध, के उपदेश भी हमें नरसंहार से हटाने में असमर्थ हो रहे हैं। टाल्सटॉय के 'युद्ध और शान्ति' तथा कुदिता मॉरिस के 'हिरोशिमा के फूल' जैसे उपन्यासों के हृदयद्रावक वर्णन भी हमें द्रवीभूत नहीं कर रहे हैं। और, आज हम बड़ी बेचैनी से शान्ति का मार्ग ढूँढ़ रहे हैं। शान्ति के चाहे हम शतकोटि कपोत उड़ायें, शान्ति के स्वप्न का दुर्बल धागा भी आज जैसे टूटने को है। युद्ध के हिंसक वाण अपराधी को नहीं वरन् सारे निर्दोषों को खोज रहे हैं, युद्धवाद का चक्रव्यूह आज अभिमन्युओं की तलाश कर रहा है। युयुत्सुओं की टोली मरण का अन्तिम नाटक खेलने को कटिबद्ध हो रही है।

ऐसी घड़ी में संसार के चिन्तक, कलाकार, साहित्यकार और दार्शनिक भी भयभीत हो जायेंगे, घबरा जायेंगे, तो प्रभु की मोहक सृष्टि पूर्णतः विनष्ट हो जाएगी। ऐसा संहार होगा कि कोई मनु हिमालय की चोटी पर नयी सृष्टि बसाने के लिए नहीं बच जाएगा। अतः ऐसा प्रयत्न किया जाए जिससे मारक अस्त्रों का निर्माण पूर्णतः बन्द हो जाय, सभी घातक अस्त्र अविलम्ब नष्ट कर दिये जायें, शान्ति का ऐसा मंत्र फूंका जाय, जिससे मनुष्य के भीतर बैठा हिंस्र सिंह भी हरिण की तरह चौकड़ी भरने लगे ओर संसार मनुष्यता के सूर्योदय से प्रोद्भासित हो उठे।