देशाटन
Deshatan
अपने घर की बैंधी चहारदीवारी से दूर-मीलों दूर, केवल देशदर्शन के उद्देश्य से निकल जाना देशाटन कहलाता है। एक स्थान पर रहते-रहते जीवन में एक-रसता आ जाती है। भ्रमण उस एकरसता को खंडित करता है। एक स्थान पर रहते रहते कुएँ के मेढक की तरह वहीं संकरा स्थान समुद्र लगने लगता है। बाहर निकल पड़ने से ज्ञान का क्षितिज फैलता है, अनुभव की जड़ें गहरे पैठती हैं।
पुस्तकीय ज्ञान में प्रत्यक्ष अनुभव का संस्पर्श नहीं होता। वस्त या स्थान के बारे में हमारी एक अस्पष्ट सूक्ष्म धारणा होती है और उसी धारणा के सहारे मानस-प्राणायाम द्वारा हम जीवनभर काम चलाते रहते हैं। समुद्र, पर्वत, वन इत्यादि हमारे लिए काम के निर्जीव शब्दमात्र होते हैं। ताजमहल, अजन्ता, कोणार्क और खजुराहो हमारे लिए भूगोल या सामान्य ज्ञान के प्रश्नभर बनकर रह जाते हैं। किन्तु एक बार जिसने इनका साक्षात्कार किया है, उसके समक्ष ये शब्द सत्य के साक्षात्कार, होकर मृदुल, मालन और सतर्क भावनाओं का संचार करते हैं।
अगस्तीन ने कहा है, "संसार एक महान् पुस्तक है। जो घर से बाहर नहीं निकलते, वे इस पुस्तक का एक पृष्ठ ही पढ़ पाते हैं।" संस्कृत की प्रसिद्ध कहावत है कि समझदारी पाने के दो मार्ग हैं-देशाटन और विद्वानों का सत्संग: 'देशाटन पण्डितमित्रता च'। हमारे यहाँ संस्कृत के बाणभट्ट से लेकर हिन्दी के राहुल सांकृत्यायन तक महान साहित्यकार महान् इसलिए हैं कि उनका सम्पूर्ण साहित्य देशाटन का चलचित्र है। राहलजी ने तो भ्रमण को एक विधा ही माना और इस विधा पर एक शास्त्र ही लिख दिया-'घुमक्कड़शास्त्र'। हमें तो ऐसा लगता है कि परमात्मा से बढ़कर कोई दूसरा बड़ा चित्रकार नहीं है। यह संसार उसकी मनोहर चित्रशाला है। जो अपने घर से नहीं निकलते, वे क्या जानते हैं कि यह जगत् कितने लुभावने चित्रों से भरा है। कहीं गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, काबेरी, राइन, वोल्गा जैसी नदियाँ कल-कल-छल-छल करती हुई मधुर सरगम सुनाती हैं, तो कहीं, हिमालय और आल्प्स जैसे नगराजों की तपारमण्डित चोटियाँ नीले नभ को आलिंगन-पाश में बाँधने को व्याकुल हैं; कहीं शाल और देवदार के वन प्रकृतिरानी के रोंगटे-से खड़े हैं, तो कही केसर की क्यारियाँ मुस्कुराहटों का सोना लुटा रही है। जिसने पुरी के सागर-तट के दर्शन नहीं किये, वह क्या जाने कि समुद्र की उत्ताल तरंगें किस बेचैनी से किनारों को चूमने के लिए दौड़ती रहती हैं। जिसने खिलखिलाती चाँदनी में ताजमहल नहीं देखा, वह क्या जाने कि पत्थर का एक स्मारक क्यों संसार के सात आश्चर्यों में परिगणित होने लगा। जिसने अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ नहीं देखीं, जिसने कोणार्क और खजुराहो के मन्दिर नहीं देखे, वह क्या जाने भारत की मूर्तिकला और चित्रकला की महत्ता! जिसने लन्दन, न्यूयार्क, बम्बई जैसे महानगर नहीं देखे, वह क्या जाने आधुनिक विज्ञान और भवन-निर्माणकला की करामाते । भ्रमण सृष्टि की विलक्षणता एवं मानव की महत्ता के अनगिन रहस्य-पृष्ठों का अनावरण करता है।
भ्रमण से एक नहीं, अनेक लाभ है। ऐतरेय प्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में भ्रमण की महिमा का बखान किया गया है। वहीं 'चरैवेति चरैवेति'-'चलते रहो, चलते रहो का दिव्य मंत्रगीत गाया गया है। गीत में कहा गया है-
चरैवेति चरैवेति!
पुष्पिण्यौ चरते जंघे, भूष्णुरात्मा फलमहि ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः॥ चरै0॥
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः।। चरैः ।।
चरन्वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरन् । चरै0 ।।
अर्थात्
चलते रहो, और बस चलते रहो।
भ्रमणशील की जाँघों में खिलते फुर्ती के फूल
फल धरनेवाली आत्मा हो उठती तीन समूल
कठिन राह पर चलने के श्रम के बदले अनुभूति
पाप काटती और थकावट खुद को जाती भूल
भूल खुद को। चलते रहो..............
बैठे-ठाले की किस्मत भी बैठी-ठाली व्यर्थ
उठ बैठे की उठ बैठा करती है सदा समर्थ
सोये की सोयी रहती है किस्मत आपा हार
चलनेवाले की किस्मत चलकर पाती है अर्थ
मान यह लो। चलते रहो...
चलनेवाला ही जीवन-मिठास पाता पल-पल
चलनेवाले को मिलता सुखादु उदुम्बर-फल
देखो इस चलनेवाले सूरज का श्रेष्ठ विधान
जो चलने में कभी नहीं तन्द्रा से है टलमल
राह को खो! चलते रहो...
इस तरह, पर्यटन से सहिष्णुता, मुक्त और उदार विचार, आत्मनिर्भरता, व्यवहार-कौशल इत्यादि की वृद्धि होती है। मनुष्य पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है। किसी विचारक ने कहा है, "He, who never leaves his own country is full of prejudices,' अर्थात् जो अपने देश के सिवा अन्य देश नहीं घूमने गया है, वह व्यक्ति सीमित दृष्टि का होता है।
अतः भ्रमणवृत्ति की जितनी भी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यदि हम 'एक विश्व' (One world) की भावना स्वयं में विकसित करना चाहते हैं, तो हमें अवश्य देश-देशान्तर घूमना चाहिए। अपने जीवन में देश के चारों छोरों पर बसे चारों धामों की कम-से-कम एक यात्रा हमारे धर्मशास्त्र में पुण्यकर्त्तव्य कही गयी है। इस पुण्य के पीछे धर्मशास्त्र की धारणा यही है कि इससे हम कम-से-कम अपने सारे देश को तो देख-समझ अवश्य लेंगे। भूगोल की दीमक खायी जीर्णशीर्ण मोटी पुस्तकों की तोता-रटन्त के बदले प्रकृति की खुली स्वर्णिम-स्वच्छ पुस्तक के कुछ ही पृष्ठ हम पढ़ पायें, तो हमारे ज्ञान के वातायन चतुर्दिक खुल जाय, चरित्र की ऊँचाई में न मालूम कितनी वृद्धि हो जाय !
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