नाव की सैर 
Naav Ki Sair


गाँव में बाढ़ आयी थी-चारों ओर पानी-ही-पानी ! बाढ़ आना बन्द हुआ, पर इसका स्थिर जल अभी चारों ओर व्याप्त था, जैसे एक छोटा-सा निस्तरंग सागर ही सोया हो।

चाँदनी चारों ओर बिछी थी। नीले नभ से पूर्णिमा का चमकता-दमकता चाँद बाढ़ के निस्तरंग जल पर झिलमिलाने लगा, मानो वह जल निशारानी के चन्द्रमुख को निरखने का दपदप दर्पण हो। ऐसे ही मनभावन मौसम में हमलोगों ने अपनी पाल और चप्पू वाली नाव खोल दी-


लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर ।

मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर,

लघु तरणि हंसिनी-सी सुन्दर

तिर रही, खोल पालों के पर! 


हम इस नौका की सैर का सारा सामान जुटा लाये थे-गानेवाले साज-सामान और गवैया साथी, कुछ गप्पी और लतीफेबाज दोस्त। लहरों पर हिचकोला खाती नाव बढ़ती जा रही थी और मित्रमण्डली तबले और हारमोनियम से निःसृत संगीत का आनन्द लेने लगी। एक मनचले मित्र ने राग अलापा, 'मेरे राजा हो, ले चल नदिया के पार' और फिर हँसी के कुछ फव्वारे छूटे और कर्पूरी चाँदनी में घुलमिल गये।

किन्तु यह क्या ? थोड़ी देर बाद देखा कि नाव कीचड़ में फँस गयी। माँझी ने लग्गी मारी, किन्तु नाव टस-से-मसन हुई। खेनेवाले के साथ-साथ कई मित्रों को अंगोछे पहनकर पानी में कूदना पड़ा। नाव मानो किसी दैत्य के जबड़े में फंस गयी हो और मेरे मित्रों को वाराहरूप धारण कर उद्धार करना पड़ गया हो। थोड़ी देर के लिए रसभंग हुआ, नीरवता झींगुरों की आवाज ही बेधती रही, लेकिन सबके साहस और सहयोग से नाव पंक से बाहर निकल आयी, जैसे चाँद राहु के चंगुल से छूट गया हो।

इसके बाद हमने पाल खोल दी और चप्पू चलाकर नाव गहरे जल में कर पाल के सहारे पश्चिम की ओर तैरने दी। फिर मित्रों का जमकर गाना-बजाना और गपशप चला। नाव अपनी मर्जी पर जा रही थी और हम अपनी मर्जी पर। मस्त, फुरहरी और शीतल हवा का मजा अंग-अंग ले रहा था। दूर-दूर गाँव और उसके बाग-बगीचे किसी स्वप्रलोक-से दीख रहे थे।

रात काफी हो चुकी थी। हमलोगों ने नाव लौटाने का निश्चय किया। हमने पाल गिरा दी और गाँव की ओर लौटने के लिए चप्पू चलाने लगे। चप्पू के छप-छप ताल पर हम सभी माँझी-गीत भटियाली की कड़ियाँ गाते हुए जब घाट पहुँचकर नाव से उतर रहे थे, तो एक मित्र ने कहा था-पता नहीं, ऐसी सैर जीवन में फिर कब नसीब होगी!