पिकनिक 
Picnic

दीवारों के बीच घिरे-घिरे जीवन में एकरसता आ जाती है, एक विचित्र ऊब पैदा होती है। लगता है, मनुष्य ने भवन क्या बनाये, कारागार बना लिये हैं।

जीवन की यही एकरसता खंडित करने के लिए, बैंधी-बैधायी जिन्दगी से अलग स्वच्छन्द जिन्दगी बिताने के लिए, मानवरचित कैदखाने से प्रकृति की सुरम्य गोद में उछलने-कूदने के लिए पिकनिक की आवश्यकता होती है। कोई पहाड़ियों पर, कोई झाल के किनारे, कोई बड़े पार्क, कोई वनस्पति-वाटिका, कोई नदी-तीर और कोई सागर-तट पर पिकनिक मनाते हैं। पटना में पिकनिक मनानी हो तो कुम्हरार या गंगा का किनारा, जमशेदपुर में डिमना-नाला, कलकत्ता में वनस्पति-वाटिका, दिल्ली में कुतुबमीनार का अहाता और बम्बई में जुहूतट उपयुक्त स्थान हैं।

हमने सोचा कि गंगा जहाँ हदय खोलकर रख देती है, उसी भूमि पर पिकनिक मनायें। कई दिन पहले तैयारी शुरू कर दी-किसी को भोजन का भार दिया गया किसी को दरी लाने का, किसी को गाने-बजाने के लिए वाद्य-यंत्रों का तथा किसी को नाविकों को ठीक करने का।

दिसम्बर का महीना था। हमने एक नाव खोली। जल पर नाव थिरकने लगी। हम सभी उसपर सवार हुए। पतवार लहरों को काट रही थी और नाव मस्तानी चाल से जा रही थी। नाव पर बीच-बीच में कोई चुटकुला सुनाता, कोई गीत की एक कड़ी गुनगुनाता और हँसी के फव्वारों से वातावरण गीला हो जाता।

थोड़ी देर के बाद ही हमारी नाव किनारे लगी। लगा कि हम एक नयी दुनिया में हों। दूर-दूर तक फैलो चाँदी के चूर्ण-सी बालुकाराशि-जगह-जगह बाल के छोटे-छोटे दूह ऐसे लगते, जैसे सफेद बिल्लियाँ सोयी हों। हमलोगों ने अपने सामान उतारे। छात्राओं को भोजन-विभाग सम्भालने को दे दिया गया, किन्तु उनलोगों ने आपत्ति की-"यह तो समता का युग है; 'साथी, हाथ बटाओ' !" हमारे कुछ मित्र छात्राओं के साथ मिलकर भोजन की तैयारी करने लग गये। इधर कुछ लोगों ने बगल में दरी बिछा दी। चाय का दौर चला- हारमोनियम और तबले पर गातों की कड़ियाँ गूंजने लगी और घंटों तक मस्ती का आलम छाया रहा। फिर हल्का नाश्ता आया-कुछ कचौड़ियाँ और एक-दो मिठाइयाँ। आज इन मिठाइयों में अधिक मिठास मालूम पड़ रही है-अधिक स्वाद। फिर बालू पर धमाचौकड़ी होने लगी। कुछ लोग कबड्डी खेलने लग गये; कुछ बालू पर क्रिकेट के बल्ले उछालने लगे; कुछ लोग किनारे की ओर निकल गये; कुछ जाँघिया चढ़ाकर कूद पड़े गंगा के बीच। घटों तक ये कार्यक्रम चलते रहे।

दिन के चार बज गये। फिर डटकर भोजन किया और अन्त में एक कवि-गोष्ठी का आयोजन हुआ। यहीं यह बात पक्की मालूम पड़ने लगी कि जवानी में हर कोई कवि होता ही है। छात्राओं ने बच्चन का 'इस पार प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा' गीत सुरीली आवाज में गाया। गीत समाप्त होने पर लगा जैसे सचमुच उस पार तो केवल व्यस्तता है, घुटन है, दौड़-धूप है, बन्धन के सिवा और है क्या?

फिर संध्यारानी अपनी अलकें बिखराती आयी। चाँदनी लहरों पर बिछलने लगी। हमलोनों ने टेरना शुरू किया-'ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक, धीरे-धीर' ।। सारा दिन आनन्द और उल्लास की तरंगों पर तैरता रहा। रात की नींद में आनन्द के वही सुनहले सपने तैरते रहे।